भारत के वीर शहीदों के नाम: राष्ट्र रक्षा समं पुण्यं, राष्ट्र रक्षा समं व्रतम्

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
राष्ट्र रक्षा में जल-थल -नभ में अपने शौर्य व पराक्रम से समूचे देश की सुख-शान्ति-समृध्दि के लिए प्रतिपल डटी हुई सेनाओं की त्रयी अपनी शूरवीरता व बलिदान के लिए सदैव जानी जाती हैं।

हमारी सेनाएं और वीर सैनिक सीमाओं पर अचल-अडिग डटे हुए हैं, इसलिए हम सब स्वच्छन्द व सुरक्षित हैं। भारत भूमि की रक्षा में पाकिस्तान-चीन से हुए विभिन्न युध्द हों याकि उनके द्वारा प्रायोजित आतंकवाद हो, हमारे वीर सैनिकों ने उन्हें सदैव मुंहतोड़ जवाब दिया है।

शान्ति के पक्षधर वीरों ने अपनी शक्ति का कभी दुरुपयोग नहीं किया,किन्तु जब भी शत्रुओं ने अपनी कायरता दिखलाते हुए घात करने का कुत्सित प्रयास किया है। तब-तब सीमाओं पर तैनात देवदूतों ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर आतंकियों, शत्रुओं का समूलनाश किया है।

विन्ध्य की पावन धरा ने भारतमाता की रक्षा के लिए चाहे स्वातन्त्र्य समर में हो याकि वर्तमान काल में सीमाओं की रक्षा में तत्पर अनेकानेक ऐसे-ऐसे वीर पुत्रों को जन्म दिया है,जिन्होंने अपना बलिदान देकर अपने जीवन को सफल तो बनाया ही है।

साथ- साथ उन्होंने राष्ट्र व समाज के समक्ष अनुकरणीय उदाहरण भी प्रस्तुत किया है। चाहे हाल ही में गलवान संघर्ष में अपने प्राणों की आहुति देने वाले श्रध्देय दीपक सिंह हों,याकि जम्मू काश्मीर में आतंकियों का समूलनाश करते हुए बलिदान होने वाले धीरेन्द्र त्रिपाठी हों। याकि बलिदानी ग्राम के नाम से राष्ट्रीय फलक में सतना प्रसिध्द सैनिक ग्राम चूंद हों। विन्ध्य की धरती ने अपनी कोख से ऐसे बहुमूल्य रत्नों को उत्पन्न किया है,जिनकी आभा से राष्ट्र की स्वतन्त्रता-एकता अखण्डता-अक्षुण्णता व गरिमा सदैव जगमगाती रहती है।

बलिदान की इसी शृंखला में जम्मू काश्मीर के शोपियां में इस्लामी आतंकवादियों का समूल नाश करने में जुटे अमर हुतात्मा भाई कर्णवीर सिंह के बलिदान की सूचना ने जहां ह्रदय को तोड़ कर रख दिया था,वहीं दूसरी ओर गर्व से मस्तक भी ऊंचा कर दिया है। उन्होंने अपने जीवन को राष्ट्ररक्षा में आहुत कर स्वर्णिम अमिट रेखा खींच दी है।

वीर कर्णवीर ने अपने बलिदान से हमारे समक्ष अनुकरणीय उदाहरण पेश करते हुए यह सिध्द किया है कि- जीवन की लम्बाई नहीं गहराई मायने रखती है। उन्होंने बतलाया है कि जीवन के क्या मायने होने चाहिए। कम आयु में- अमर आयु प्राप्त करने वाले कर्णवीर ने सिखलाया है कि मातृभूमि के लिए जब अपने प्राण गवांने की बारी आए,तब उसमें कैसे सहर्ष आगे आकर अपने आप को समर्पित कर देना पड़ता है। 

उनके पिता सेवानिवृत्त मेजर रवि प्रताप सिंह जब अपने बेटे के बलिदान पर गर्व करते हुए कहते हैं कि- यदि मेरे दस बेटे होते तो, मैं सभी को भारत मां पर कुर्बान कर देता। उन्होंने अपने बेटे को मां भारती के लिए अर्पित कर दिया किन्तु उनकी आंखों से आंसू की एक बूंद नहीं गिरी। यह भाव राष्ट्र के प्रत्येक सैनिक का भाव है- यह भाव राष्ट्र का स्वभाव है। यह भाव मातृभूमि के प्रति अगाध श्रध्दा व राष्ट्रप्रेम की अमरता की पवित्रा का बोध है। जो भारतीय सनातन परम्परा के उस मन्त्र को चरितार्थ करता है जिसमें कहा गया है -
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्।।

अर्थात्: सम्पूर्ण कुल के कल्याण हेतु अगर एक पुत्र का त्याग करना पड़े तो उसे करें। एक गांव को बचाने के लिए एक कुल का त्याग करना पड़े तो अवश्य करें। राष्ट्र के लिए आवश्यकतानुसार गांव का भी त्याग करें तथा आत्मकल्याण के लिए पृथ्वी का भी (स्वयं के प्राणों का भी) त्याग करना पड़े तो अवश्य करें।

भारत की शूरवीरता के इतिहास में गांवों की माटी ने सदैव अपना महनीय बलिदान दिया है। जब महात्मा गांधी कहते हैं कि भारत की आत्मा गांवो में बसती है,तो उसके पीछे यही समस्त भाव व बलिदान की अमर गाथा व राष्ट्र संस्कृति के अनूठेपन को अपनी वैविध्यता में समाए हुए गांवों की अभिव्यक्ति ही है,जो अनेकानेक माध्यमों से मुखरित होती है।

सचमुच में भारत माता ग्रामवासिनी है,क्योंकि मां  भारत की रक्षा में जल-थल-नभ की सीमाओं में डटे हुए वीर, पावन, पुण्य- पुनीता भारत भूमि के विभिन्न कोनों के गांव- गांव से आए हुए हैं। जिन्होंने सेना में जाकर राष्ट्रसेवा करने का कठोर व्रत को आत्मसात किया और आत्मार्पण करने की अद्भुत पराकाष्ठा की अथक -अनवरत साधना एवं आराधना की। आज भी आप चले जाइए और देखिए गांवों की गलियों में सेना में जाने की तैयारी करते हुए नौजवान युवाओं की एक बड़ी भारी 'फौज' मिल जाएगी। और यही 'फौज' आगे चलकर देश की फौज बनकर हमारे आपके जीवन को सुरक्षित रखने व सीमाओं में शत्रुओं पर कड़ी निगरानी रखती है, तथा जब शत्रु भारत माता की ओर अपनी लोलुप व आतंकी दृष्टि से देखने का दुस्साहस करता है, तब हमारे यही वीर जवान उसकी आंखें निकाल लेते हैं।

सेना में जाने की तैयारी कर रहे उन नौजवानों का प्रारम्भिक उद्देश्य भले ही यह रहता हो कि सेना में जाकर अपने घर-परिवार को आर्थिक और सामाजिक प्रतिष्ठा का गौरव प्रदान करेंगे।

किन्तु जैसे ही उनका सेना में अन्तिम तौर पर चयन होता है,तत्क्षण ही उसका ह्रदय स्वमेव परिवर्तित हो जाता है। और उनके मनोमस्तिष्क में भारत माता और विराट सीमाओं की अखण्डता व राष्ट्रवासियों की रक्षा-सुरक्षा का भाव उसके रोम रोम में स्वत:सञ्चारित होने लग जाता है।

हम आप देखते हैं सेना के अधिकांशतः जवान विभिन्न गांवों की पृष्ठभूमि एवं सामाजिक एवं आर्थिक तौर पर सामान्य- मध्यमवर्गीय,कृषक परिवारों से ही आते हैं। किन्तु उनके अन्दर राष्ट्रभक्ति का जो ज्वार उफनता है वह अपने आप में असामान्य होता है। अपना पूरा जीवन घर -परिवार - समाज से अलग नेपथ्य किन्तु राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए मुख्य भूमिका का निर्वहन करने वाले सीमाओं के प्रहरी अपने -अपने कर्त्तव्यों को पूर्ण करने के लिए दिन और रात को एक कर देते हैं।

ऐसा कोई पल नहीं बीतता है,जब वे अपने प्राणों को हथेली पर रखकर सीमाओं की सुरक्षा में डटे न रहते हों। एक सैनिक के रुप में उनका दायित्व इतना श्रेयस्कर हो जाता है कि वे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने लग जाते हैं। हमने देखा है चाहे कोई प्राकृतिक आपदा यथा- बाढ़, भूकम्प, तूफान, सुनामी हो या आतंकवाद, नक्सलवाद सहित किसी महामारी का प्रकोप हो। जब-जब भारत माता किन्हीं विपदाओं से घिरती है,तब- तब हमारे राष्ट्ररक्षक सर्वप्रथम और अग्रगण्य होकर अपने प्रत्येक दायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वहन करते हुए समूचे देश के संकटमोचक बन जाते हैं। और अपने अदम्य साहस व जीवटता के माध्यम से प्रत्येक विपदा को हरा देते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें अपने प्राण ही क्यों न न्यौछावर करना पड़ता हो। हमारे वीर जवान अपने अजेय व अपार शक्तिशाली- शौर्य व पराक्रम के द्वारा सदैव भारतवर्ष का भाल उन्नत कर देते हैं।

एक सैनिक जब सेना की वर्दी में मां! भारती की रक्षा के लिए प्राण न्यौछावर का संकल्प लेता है, तब उसके लिए घर- परिवार और व्यक्तिगत सुख- समृध्दि गौण हो जाते हैं। सैनिक के ह्रदय में राष्ट्र रक्षा से बड़ा कोई और कर्त्तव्य उसकी प्राथमिकता में नहीं रहता है। भारत का सैनिक सदैव वन्देमातरम् को अपने जीवन का मन्त्र व भारत माता की रक्षा को अपनी श्रेष्ठ साधना मानकर अपने कर्तव्यों के माध्यम से तपस्यारत रहता है।

जब वह सीमाओं का प्रहरी बनकर राष्ट्र की एकता- अखण्डता के लिए अपने आपको आहुत करता है, तब उसके राष्ट्रप्रेम को परिभाषित करना दुस्कर व असंभव ही हो जाता है। और उसका यही साहस- शौर्य व समर्पण की भावना संसार की सम्पूर्ण शक्ति को अपने सामने झुका देती है।

यही भावना, यही समर्पण, यही साहस, यही शौर्य, यही शक्ति-यही भक्ति उसे उस विराट राष्ट्रपुरुष का साक्षात्कार करवाती है,जिसके मूलतत्व ने उसे सेना में जाकर राष्ट्रसेवा की ओर उन्मुख किया था। सीमाओं पर अपने लहू से मां भारती का अभिषेक करने वाले वीर हुतात्माओं का बलिदान केवल उनका बलिदान नहीं है, बल्कि वह प्रत्येक भारतीय की अन्तरात्मा का बलिदान है। हमारे राष्ट्र की की यही विशेषता है कि देश का प्रत्येक सैनिक राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति के परिवार का अभिन्न अङ्ग है। और उसके बलिदान पर जन-जन केवल इसीलिए आहत और गर्व करता है,क्योंकि वह भारत के कण-कण का और जन-जन का प्रतिनिधित्व करता है। हमारी सनातन संस्कृति की समृध्द व गौरवशाली परम्परा रही है जिसमें जन- जन के जीवन का ध्येय यही होता है कि
राष्ट्र रक्षा समं पुण्यं,राष्ट्र रक्षा समं व्रतम्,
राष्ट्र रक्षा समं यज्ञो, दृष्टो नैव च नैव च।।

हम सब अपने वीर जवानों के बलिदान और राष्ट्रीय के विषय में अपने विभिन्न भेदों को भूलकर 'एकमत' हो जाते हैं,यही विशेषता हमारी 'विविधता में एकता' की भावना को समृद्ध व सशक्त करती है। ऊपर से जब राजनैतिक मुद्दों के अलावा भारतीय राजनीति का नेतृत्व राष्ट्ररक्षकों के सम्मान के लिए मुख्यधारा में आता है, तब हमें यह सुखद अनुभूति होती है कि हमारी राजनीति में अब भी कहीं न कहीं शुचिता व सम्वेदना शेष बची हुई है।

राष्ट्र की रक्षा करते-करते वीर सैनिकों के राष्ट्रयज्ञ की बलिवेदी में बलिदान हो जाने पर सबकुछ भूलकर भारतीय राजनीति का जो सम्वेदनशील चेहरा दिखता है, वह हमारे लोकतन्त्र को एक नया आयाम देता है। वीर सैनिक जो राष्ट्र की सेवा में अपना प्राणोत्सर्ग कर देता है,उसके बलिदान की हम कभी भी कोई भी कीमत नहीं चुका सकते हैं। लेकिन ऐसी विकट परिस्थितियों में यदि हम अपने वीर हुतात्मा सैनिक के सम्मान के लिए उपस्थित होते हैं तथा सैनिक के परिवार एवं उसके दु:ख को अपना समझते हैं। तो समूचे राष्ट्र में सैनिकों के प्रति सम्मान का यह भाव एवं राजनैतिक नेतृत्व का यह स्वरूप अपनी यश-कीर्ति को प्राप्त करता है।

राष्ट्ररक्षकों का  सम्मान प्रत्येक नागरिक के कर्तव्यबोध को भी प्रदर्शित करता है कि राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति की राष्ट्रनिर्माण में क्या भूमिका होनी चाहिए? अब तय हमें करना है कि हम अपने कर्तव्यों का पालन किस प्रकार करते हैं।

हम स्वयं को इस कसौटी पर रखकर खरा उतारने का प्रयास करें कि - क्या हम राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा करने के लिए प्रतिपल तैयार जवान की भाँति अपने दायित्वों को निभाते हैं या नहीं? यदि हम उन सैनिकों के बलिदान के प्रखर पुञ्ज को अपने ह्रदय में संजोते हुए उनसे प्रेरणा लें तो राष्ट्र को जर्जर करने वाली व्याधियां स्वत: समाप्त हो जाएंगी, क्योंकि राष्ट्ररक्षा के लिए सेनाओं में गया जवान किसी भी कीमत पर अपनी मातृभूमि की रक्षा के मार्ग से नहीं हट सकता है।

वह अपने प्राणों की आहुति दे देगा किन्तु राष्ट्ररक्षा के मार्ग से नहीं डिगेगा। बस यही अमर ज्योति हम सभी को अपने ह्रदय में जलाए रखनी है और जन-जन में राष्ट्रभक्ति,वीर हुतात्माओं के प्रति कृतज्ञता एवं उनकी गौरवगाथा को जन-जन के ह्रदय में बसाए रखने का प्रयत्न करना है। अपने महान पुरखों,वीर हुतात्माओं व राष्ट्र के लिए इससे बढ़कर अन्य कोई आहुति नहीं होगी कि हम उनकी हुंकारों को धारण करते हुए नि:स्वार्थ भाव से राष्ट्रसेवा में रत रहें।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

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