राजा का बाजा बजा

अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)
बुधवार, 8 जुलाई 2020 (13:52 IST)
राजा का बाजा बजाना यह सदियों से कई मनुष्यों का मनपसंद काम है। जब तक राजा की सत्ता कायम है, प्रजा के अधिकांश प्राणप्रण से दिन-रात उठते-बैठते राजा का बाजा बजाते रहते हैं। कोई सुने, न सुने, कोई कहे, न कहे, राजा सामने हो, न हो, बाजा बजाना बंद ही नहीं होता। जब तक राजा, राजा है तब तक राजा का बाजा बजाते रहना है।
 
बाजा बजाते रहना यह राजा का घोषित फरमान नहीं होता। पर राजा की प्रजा, राजा के सामने तो मुंह खोल नहीं सकती और जीवनभर मुंह भी बंद नहीं रख सकती। ऐसे में सबसे निरापद रास्ता प्रजाजन को लगता है कि राजा का बाजा बजाओ। जीवनभर मौज मनाओ। राजा का बाजा बजाना सीखना नहीं पड़ता। एक ही धुन बजती रहती है, राजाजी के जयकारे की धुन। कई बाजा बजाने वाले तो मानते हैं राजा तो सरकार है। सरकार का बाजा तो बजेगा ही। नि:शब्द भक्ति-भावना से सरकार का काम नहीं चलता।
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कभी-कभार ऐसे लोग भी समाज में दिखाई पड़ते हैं, जो राजा का बाजा बजाने से दूर ही नहीं रहते, इंकार भी करते हैं। वे राजा का बाजा बजाने वालों से कहते हैं कि राजा का बाजा नहीं, राजा का बाज़ा बजाओ। बात एक ही है राजा का बाजा बजाना और राजा का बाजा बजाओ। एक निरापद रास्ता है, दूसरा जोखिमभरा। एक जैसे शब्दों की तासीर में जमीन-आसमान का भेद। शब्द एक, भाव अनेक।
 
पहले के जमाने में जब राजा इस दुनिया से बिदा होता था तभी नया राजा आता था। पर आज की दुनिया में जन्मना राजा गिने-चुने देशों में ही बचे है। उसमें भी कई तो प्रतीकात्मक स्वरूप में हैं। आज की दुनिया में किस्म-किस्म के लोकतंत्र का राजकाज है। पहले लगभग सारी दुनिया में राजा, रानी के पेट से पैदा होता था। अब अधिकतर देशों में जनता के वोट से जनप्रतिनिधि चुना जाता है।
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कभी-कभी वोट के बजाय बंदूक के बल पर भी सत्ता को हथियाने का चलन भी है। ऐसे देशों में सत्ता बंदूक के बल पर मिलती भी है और सत्ताबदल भी बंदूक से ही होता है। ऐसे में राजा या सत्ता का सर्वोच्च मुखिया न तो रानी के पेट से पैदा होता है, न मतदाता के वोट से पैदा होता है। बंदूक की नोक से पैदा होता है।
 
जिन देशों में लिखित संविधान से जनप्रतिनिधि को लोगों की सेवा करने का अवसर मिलता है, वहां तो देश का बुनियादी स्वामी या मुल्क का मालिक वहां के लोग या मतदाता हैं। ऐसे देशों में जनप्रतिनिधि या चुने हुए सर्वोच्च मुखिया को लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी को बेहतर बनाना चाहिए। लोगों को लोकतांत्रिक रूप से हर तरह से तेजस्वी और संकल्पवान नागरिकत्व से परिपूर्ण बनाने की दृष्टि रखना चाहिए।
 
लोकतंत्र में नागरिकत्व कमजोर, उदासीन, लाचार और असहाय नहीं होना चाहिए। पर ऐसे देशों में भी जहां लोकतंत्र के होते हुए और संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी मूलभूत अधिकारों के रूप में होने पर भी जनप्रतिनिधियों पर लोक अंकुश रखने के बजाय अधिकांश नागरिक यंत्रवत, चुपचाप लोकतंत्र में बिना सोचे-समझे, जनप्रतिनिधियों को जनसेवक के बजाय राजा मान राजा का बाजा निरंतर बजाते रहे, तो यह सदियों के सामंती संस्कारों का लोकमानस पर गहरा प्रभाव ही माना जाएगा। इसी कारण जनप्रतिनिधि और जनता दोनों ही अपनी भूमिका संवैधानिक रूप से निभाते रहने में सफल नहीं होते हैं।
 
लोकतंत्र होते हुए भी लोक अपनी तेजस्विता का विस्मरण कर आंख बंद कर खुद संवैधानिक रूप से सर्वोच्च शक्ति संपन्न नागरिक होकर भी हर समय राजा का बाजा, बजा-बजाकर अपनी बुनियादी भूमिका ही बदल देता है। तब लोकतांत्रिक ऊर्जा से ओतप्रोत लोकमानस में उभरे असंतोष से राजा का बाजा बजाने की चुनौती का जन्म होता है।
लोकतंत्र में नागरिकों की सतत चैतन्यता और भागीदारी यही लोकतंत्र का प्राणतत्व है। लोकतंत्र जनप्रतिनिधियों को लोगों की सेवा करने का अवसर उपलब्ध करवाता है। राजा बन अपने जयकारे का बाजा निरंतर बजवाने का लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं है।
 
लोकतंत्र लोगों के लिए लोगों की लोगों द्वारा चलने वाली सरकार है, पर दुनिया में कहीं भी इस आदर्श लोकतंत्र का साकार स्वरूप जमीन पर उतरा दिखाई नहीं देता। शायद उसका कारण यह है कि कहीं भी नागरिक अपने आपको लोकतंत्र का रखवाला नहीं मान पाते।
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अपने वोट से चुने जनप्रतिनिधि को जाने-अनजाने राजा मान उसका बाजा बजाने को ही अधिकांश नागरिक अपना एकमात्र काम मानते हैं। चुनी हुईं लोकतांत्रिक सरकारों के नागरिक सरकार चुने जाने के बाद या तो खामोश रहते हैं या राजकाज को लेकर प्राय: उदासीन रहते हैं या फिर निरंतर निरापद रूप से राजा का बाजा बजाते रहते हैं।
 
लोकतांत्रिक देशों में जो राजनीतिक दल हैं, उनका भी बुनियादी ढांचा अपने-अपने दल के मुखिया, जो एक तरह से दल के मनोनीत या वंशानुगत राजा होते हैं, का बाजा बजाते रहना ही एकमात्र राजनीतिक काम होता है। कार्यकर्ता को लोकतंत्र के जमीनी विस्तार से ज्यादा पार्टी के बास के आशीर्वाद पाने की ज्यादा चिंता होती है।
 
राजाजी ने कहा, हंसो तो हंस दिए। राजाजी ने कहा, भगो तो भग लिए। ये है लोकतंत्र की दशा और दलों की दुर्दशा। सब दलों की कार्यकारिणी बैठकर अपने-अपने राजा को फैसला लेने के सर्वाधिकार का प्रस्ताव बिना चर्चा के ही पारित कर राजाजी को अर्पण कर देती है। जब बाजा ही बजाना है, तो कैसी चर्चा और कैसी देर? जब सब कुछ राजाजी को ही करना है तो हम जी-जान से राजाजी का बाजा क्यों न बजाएं? जब बाजा बजाने से ही देश, दल और दुनिया चल रही है तो फिर कैसी चिंता और किस बात की चर्चा?
 
अब तो लोकतंत्र और लोकतांत्रिक दल भी लोकचेतना और लोकभागीदारी से नहीं, कॉर्पोरेट मैनेजमेंट से चलने लगे हैं। मीडिया मैनेजमेंट भी पुरानी बात हो गई। मीडिया को ही थोकबंद बाजा बना दो। जब राजा का बाजा ही बजाना है तो कैसा मीडिया और कैसा मैनेजमेंट?
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अब लोगों को तो बाजा बजाने से ही फुर्सत नहीं तो क्या करें? बाजार को ही सब कुछ क्यों न सौंप दें? नागरिक बाजा बजाते रहें, जनप्रतिनिधि चुपचाप बाजा सुनते रहें। स्कूल, अस्पताल, बस, रेल, हवाई जहाज को लेकर राजाजी क्यों रोज रोज की माथापच्ची करें। जब दुनियाभर में राजा से ज्यादा कॉर्पोरेट राज करें। तो कैसा लोक और कैसा तंत्र?
 
अब है आधुनिक विकास का मॉडर्न कॉर्पोरेट मैनेजमेंट। तो समझे जनाब, आजकल दुनियाभर में राजा का बाजा ही बजता है। कोई राजा का बाजा नहीं बजाता, क्योंकि नाम तो राजा का है कामकाज सारा कॉर्पोरेट मैनेजमेंट का। कॉर्पोरेट राज देश-दुनिया को चलाता है और दुनियाभर के राजा, लोगों को बाजा बजाने देते हैं।
 
लोग पुरानी परंपरा को प्राणप्रण से पकड़े राजा का बाजा बजाते जा रहे हैं और दुनियाभर में वोट से जन्मे, रानी के पेट से जन्मे या बंदूक की गोली से जन्मे राजा मंत्रमुग्ध हो लोगों को राजा का बाजा बजाने से न तो रोकते और न ही टोकते हैं। यही आज की दुनिया के राजाओं के लोकतांत्रिक संस्कार हैं, जो प्रजा को राजा का बाजा बजाने से रोकते भी नहीं और लोग राजा का बाजा बजाते थकते भी नहीं। (फ़ाइल चित्र)
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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