सखी सइयां तो फूटी कौड़ी नहीं कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
लोकतन्त्र कक्का हमको एक दिन सैर करते हुए मिल गए। हमने उनको परणाम कर पूछा। कक्का कइसे हो? वैसे कक्का शांत, सहज आदमी हैं, अक्सर हमारा उनका मेल-मिलाप और डिबेट होती रहती है।

ठीक वइसे ही, जइसे संसद में बजट पर। जिसमें बारी-बारी से सब जट लेते हैं और फिर गजट में परकाशित कर देते हैं।

लेकिन इस समय कक्का उखड़े-उखड़े दिख रहे थे। हमारी उनसे बहुत पटती थी इसलिए अपुन बेहिचक वार्ताएं करते रहते थे। अपुन को कोई टेन्शन नहीं था।काहे की सरकारी मास्टर को अब पेन्शन नहीं थी।

कक्का गुस्साए के बोले -तुमको काहे को बताएं, हम कइसे हैं। अब जइसे हैं तो वइसे हैं। यहां मंहगाई से चमड़ी उधड़ रही है और तुम पूछ रहे कइसे हो?

हम बोले मंहगाई? इ तो कब का भाग गई

और ई चमड़ी -यहां तो दमड़ी जा रही

हां,और नहीं तो का ,कहे लुगाई बोले का? मंहगाई ने ऐसी हालत खराब की है कि- छोकरों! को लुगाई भी न मिले। हम तो आज की दलबन्दी की घेरा बन्दी में पिस रहे, और संसद, विधानसभा में नेता शायरी पेल रहे।
हम थोड़ा झेंपते हुए बोले,कक्का प्लीज गुस्साओ न! अंग्रेजी वाला सॉरी

कक्का फिर भनक गए। उनको शायद कम सुनाई दिया था इसलिए वे तर्रा कर बोले,  का सोहारी?
यहां तो डालता, रिफाइंड, गैस के दाम सब आसमां को छू रहे और तुम सोहारी-सोहारी चिल्ला रहे हो। जेब में आना नहीं, तो कान छेदाना नहीं।

जब सोहारी नहीं तो तरकारी नहीं। हम बोले कक्का माफ करो। उन्होंने कहा साफ-साफ कहो। हमने कहा हां,कक्का जे! बात है। ई मंहगाई डायन खाए जात है। सखी सइयां तो फूटी कौड़ी नहीं कमात हैं।
कक्का बोले तुम फिल्मी हो। सरकार जुल्मी है।

हमने कहा ,देखो ! कक्का अइसे न! कहो। आंकड़ों में ग्रोथ है। जी― डीपी जनता की ब्रीथ है। जब - जी की डीपी ब्रीथ है,तो सरकार फुल टू क्लीन है। अइसे में जुल्मी का कउनो नहीं, सीन है।

लोकतन्त्र कक्का अइसे भड़के कि इक सांस में हमको सुनाए के रख दिए-

पेट्रोल है सौ के पार ,गैस चार सौ से -आठ सौ की कतार। सब्सिडी की वैलिडिटी नहीं। इलेक्ट्रीसिटी में भई तकरार। चायपत्ती के दुगुने दाम-किराना लेने में है सबका काम तमाम। किसान दाना बेचे-औने-पौने दाम। हुक्काम छलकाते हैं जाम पर जाम। रिश्वतखोरी का टूटा पैमाना। सरकारी चक्कर में घनचक्कर का जमाना। जनता का यह कैसा इम्तिहान जहां मंहगाई की मार पर मार, भ्रष्टाचार का बसा संसार।

नेताओं की बिस्लेरी बॉटल-जनता नलकूपों में हलाकान। करदाताओं को बना भिखमंगा-नेता करते रहते जनमत को नंगा।

अब तुम कहते हो मंहगाई नहीं?

कक्का का जे! टॉर्चर हम झेल पाने की हालत में नहीं थे। थोड़ा सकपकाए और घबराए।फिर हम कक्का से बोले तुम्हारी बातें शत-प्रतिशत सही हैं। लेकिन यदि मंहगाई है तो आन्दोलन क्यों नहीं? वे बोले ज्यादा सयाने न बनों। तुमने नौकरी न पाई- इसलिए तुम्हारी अब तक हुई न सगाई।  अब कक्का हमारी बेइज्जती पर उतारू थे। हम बोले कक्का पर्सनल नहीं, वे बोले जब 'आन्दोलनजीवी' इण्टरनेशनल। तो हम पर्सनल काहे नहीं?

ई 'आन्दोलनजीवी' कौन बला है?

इसी ने तो हर आन्दोलन को छला है इसलिए किसी का न हुआ भला है। परधानमंत्री को सुना? हमने कहा -हां।
लोकतन्त्र कक्का बोले तो 'आत्मनिर्भर' बनो।
हम बोले-जनता मँहगाई में आत्मनिर्भर ही तो है,और कइसे बनते हैं?
कक्का ने ठहाके मारते हुए कहा-
मारा ही पैंतरा हम पर चलाए दिए। आखिरकार मंहगाई का प्रकोप तुम भी मान लिए।
अब तुम ही बताओ, तुमने बेरोजगारी की कोई बात करी? नेताओं के पिछलग्गू बने और उनकी जयकार करी। भाषणबाजी में तुमने उफान भरी। और अपनी किस्मत में दुधारी तलवार धरी। फॉरम पर फॉरम भरते गए। उस पर भी टैक्स पर टैक्स देते रहे। जितने की भर्ती नहीं, उतनी सरकार की कमाई हुई। जनता की जेब ढीली और तुम बेरोजगारों की शक्ल में तन्हाई हुई।

बोलो मंहगाई हुई कि न?
लोकतन्त्र कक्का ने हमारी दुखती नस पर हाथ रख दिया था। हमको भी उतने ही वोल्ट का करण्ट लगा, जितने में किसी का वारण्ट कटा। धड़कन सौ के पार थी। पेट्रोल की मार थी। जेब में मंहगाई की हाहाकार थी। और मुंह में सरकार की जय-जयकार थी।

हम बोले -हम 'विद्रोही' बनेंगे। आन्दोलन खड़ा करेंगे। हमारे ये शब्द सुन कक्का ताव पर आकर बोल उठे-
क्या देशद्रोही बनोगे? मंहगाई पर मुंह खोलोगे? सत्ता से कुछ भी बोलोगे? माना कि मंहगाई की मार है,लेकिन अपनी ही सरकार है। फिर बगावत की क्या दरकार है? मंहगाई जरूरी है,जनता इसके बिन अधूरी है। चुनावी बिसात में लिखी गई जनता की किस्मत कोरी है। गोदान उपन्यास जैसे ही -धनिया और होरी हैं।

हर ओर सरकारी खर्चे के चर्चे हैं। जनता के हाथों में केवल चुनावी पर्चे हैं। इसलिए मंहगाई पर न बात करो। सियासी पैंतरों पर सिर्फ़ टाईम पास करो। ये वक्त भी कट जाएगा, सत्ता पर जो भी आएगा -जनता के खाते में तो वही शून्य आएगा। हमारे पास समय कम था, लोकतन्त्र कक्का की बातों में वाकई दम था। मंहगाई से जनता का निकलता दम है, सरकारी आंकड़ों में अब भी वही चम-चम है। आखिर में हम कक्का को परणाम कर चलते बनें। लेकिन टीस यही उफनती रह गई कि 'मंहगाई' पर लोकतन्त्र कक्का की बात कोई क्यों न सुनें।

(इस आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक की निजी राय है, वेबदुनिया से इसका संबंध नहीं है)

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