उसी की ही गलती है, आखिर गरीब पैदा हुआ तो क्यों हुआ?

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
शक्लें सबकी होती हैं लेकिन सबका रेट अलग-अलग होता है। धनाढ्य हों तो आपके फर्म और बंगलों में तस्वीरें टंगी मिलेंगी या बड़े-बड़े स्वयंभुओं के साथ वाली तस्वीरे शोभायमान होंगी और उनकी मार्केट वैल्यू भी उतनी ही बढ़िया होगी।

राजनीति में अगर हो और उस पर बड़े वाले नेता तो शहर की होर्डिंग्स से लेकर सोशल मीडिया के सारे प्लेटफॉर्म में नेताजी के पोस्टर घूमते रहते हैं। इतना ही नहीं अखबारों में भी प्रेस विज्ञप्ति के कॉलम में मूंछों में ताव देते हुए श्रध्दांजलि देते हुए नजर आया जा सकता है। अब यदि फिल्मी हीरो और हीरोइन हो तो उनके छींकने तक और सांस लेने की खबरें आ जाएंगी और सरकार के मंत्री से लेकर सारे नुमाइंदे जल्दी ही स्वस्थ होने की कामना करने लगेंगे। बात इतने पर भी न बनी तो वे पूरा स्वास्थ्य विभाग ही उपचार के लिए भेज देंगे। बाकी यदि गरीब हो तो तुम्हारी लाश ही क्यों न सड़ जाए किसी को रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ने वाला है।

लोग तो आजकल हुलिए को देखकर पता लगा लेते हैं कि इसकी औकात और बिसात कितनी होगी? जिसकी जितनी औकात उसकी मार्केट में उतनी ही ज्यादा पूछ-परख होती है, बाकी सब तो रॉ-मटेरियल हैं जिसकी मैन्यूफैक्चरिंग करते हुए कैटेगरी के आधार पर डिमांड होती है।

इसीलिए जनप्रतिनिधि बनते ही सियासी चेहरों में चमक-धमक तो आ ही जाती है। ऊपर से देशी और विदेशी मसाज के तड़के लगवाने से अन्दर से कुटिल चेहरों में एकदम सफेदी और बुढ़ापे की उमर में भी जवानी की खुमारी छाई रहती है। वो भी इसलिए क्योंकि वो जन के प्रतिनिधि है यानि जनता के भाग्य नियंता।

इन सबके रंग भले ही गिरगिट की तरह बदलते रहते हों लेकिन एक शक्ल उसकी होती है जो देश को गढ़ता है।
उसकी शक्ल की फोटो खींचकर टीआरपी की कमाई भी होती है तो लच्छेदार भाषणों और पैकेजों में उसकी उन्नति के वादे और दावे भी किए जाते हैं लेकिन उसकी स्थिति जस की तस रही आती है।

उसे बड़ी ही आसानी से देखा और पहचाना जा सकता है चेहरे पर झुर्रियां और अनिश्चितताओं के गहरे घावों की वजह से गालों पर बने हुए गहरे गढ्ढे। आंखे धंसी हुई और फीका हाव भाव तो मेहनतकश हाथों पर फफोलों के जम चुके निशान और मैले-कुचैले कपड़ों में भी मुस्कुराने की जद्दोजहद करता हुआ बेचारा गरीब-मजदूर। कुछ लोग तो देखकर भी डर संशय में पड़ जाएंगे कि यह इंसान ही है या किसी दूसरी दुनिया से आई हुई कोई दूसरी प्रजाति है।
उसके गालों पर वह गढ्ढा नहीं है बल्कि वह तो लोकतंत्र की वर्षों से माननीयों ने जो सरकारी आंकड़ों में खुदाई की है बस उसी का प्रतिरुप है।

उसकी धंसी हुई आंखों में जो काले घेरे दिखते हैं वे काले घेरे नहीं है, बल्कि वह तो देश के विकास के उस फरेबी तंत्र की कालिख है जो लोकतंत्र को तिल-तिलकर जलाने से पैदा हुई है।

इन हाड़-मांस और अलग-अलग दिखती पसलियों वाली शक्लों को देखकर साफ-साफ अन्दाजा लगाया जा सकता है कि लोककल्याण का नारा किस कदर फलीभूत हुआ है। उसकी शक्ल का रेट भी तय होता है कभी योजनाओं का लाभ दिखाने के लिए तो कभी नीचा दिखाने लिए। अब यह भी तो अच्छी बात है कि कम से कम और कुछ हुआ हो या न हो लेकिन उसकी शक्ल तो बढ़िया सभी जगह घूमती रहती है। इससे बड़ा भी कोई सौभाग्य होगा क्या? जिनके आलीशान बंगलों में इन हाड़ के ढांचे वाले चेहरों की सूरत भी देखनी पसन्द न हो, तब भी वहाँ के बाशिंदों के द्वारा बढ़िया एडवरटाईजमेंट कर इनकी तस्वीरों को तो भुना लिया जाता है।

फैक्ट्री मालिक लात मारकर भगा दे या बन्धुआ मजदूरी करवाए तो कभी ठेकेदार मजदूरी ही काट ले और आधी-अधूरी ही दे इससे किसी को क्यों फर्क पड़े? तो कभी बिल्डिंग बनाते हुए गिरकर मर जाए या बड़े-बड़े पुलों के नीचे धंसकर चीत्कार करता हुआ जमींदोज हो जाए या कि आग लगने से फैक्ट्रियों के अन्दर ही जल-भुनकर चुर-पक जाए।

कोई भी मुसीबत आए उसके दो-दो हाथ पैर हैं उससे जूझे फिर बच जाए तो उसका भाग्य या मर जाए तो उसका भाग्य।

उसकी फिक्र किसी को क्यों हो? जब मर जाएगा तो उसकी लाश भी दबा दी जाएगी ऊपर से उसने बीमा क्यों नहीं करवाया इसकी घुड़की दी जाएगी? उसे मरना था तो ठीक मरा इसके पहले पेट पालने की जगह आगे उसे बीमा करवाना चाहिए था,फिर चाहे वह भूखा मरता या जो बन पड़े वह करता।

यह भी तो उसी की ही गलती है, आखिर गरीब पैदा हुआ तो क्यों हुआ? अगर गरीब के घर पैदा भी हुआ तो उसे पैदा होते ही मर जाना चाहिए था। नहीं तो अमीरों के घर में पैदा होता या किसी माननीय के यहां पैदा हो जाता। सरकार ने क्या उसका हमेशा के लिए ठेका ले रखा था? माना कि वह गरीब था तो मजदूरी करने क्यों गया उसे झुग्गी-झोपड़ी में रहते हुए गवर्नमेंट के गरीबी का प्रोडक्ट बनना चाहिए था और फिर हर चुनावी साल में दारू-पैसा, सब लेकर लुत्फ उड़ाता। बड़ा आया था स्वाभिमानी बनने, तो भुगते अब। जब तक जीता कम से कम शानदार गरीबी तो देखता। फिर किसी बीमारी से मर जाता और उसका अंतिम संस्कार हो जाता।

अब इसमें सरकारों की क्या गलती है? कि सारी योजना उसने कागजी फाइलों में दौड़ाई। अब उन सरकारी नौकरशाहों की भी क्या गलती है जो उसने योजनाओं की ऐसी-तैसी कर ऊपर से लेकर नीचे तक बजट का बंदर-बाट किया। उनके भी तो घरों में बच्चें है जिनकी कई पुस्तों के लिए इंतजामात करना पड़ता है और माननीयों को पेटी भी तो पहुंचानी पड़ती हैं जिससे सरकार हुजूर! अपनी तोंद फुलाकर गहन निद्रा में आराम फरमाएं और पैग पर पैग लेते हुए योजना बनाते हुए कमाई के तरीके और परसेंटेज फिक्स्ड करने की जुगत लगाते रहें।

अब भाई जिसको कल मरना हो आज मर जाए कम से कम जनसंख्या ही तो घटेगी और उसमें से गरीबों की संख्या भी तो घट जाएगी। बाकी ये तो लोकतंत्र का मार्केट है जहां सबकी कीमत लगती है और सब बिकते हैं, जैसे आजकल लोकतंत्र के मार्केट में गरीब-मजदूर के शेयर उछाल मार रहे हैं उसी तरह कोई न कोई दिन तो ऐसा जरुर आएगा जब मार्केट में डिमांड बढ़ेगी। इसलिए अपना-अपना रेट तय कर लो क्या पता कब किसकी डिमांड बढ़ जाए!

नोट: इस लेख में व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक की न‍िजी अभिव्‍यक्‍त‍ि है। वेबदुन‍िया का इससे कोई संबंध नहीं है।

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