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इस धर्मयुद्ध में सेकुलर होना कितना मुश्‍किल और कितना आसान

अनिरुद्ध जोशी
शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2020 (11:37 IST)
हमारे देश में दो शब्द प्रचलन में है एक धर्मनिरपेक्षता और दूसरा सर्वधर्म समभाव। सेकुलर शब्द को हमारे देश में धर्मनिरपेक्ष कहा जाता है परंतु इसका सही अर्ध है संप्रदाय या मत निरपेक्षता। खैर, हम शाब्दिक अर्थ के पचड़े में नहीं पड़ते और मुद्दे की बात करते हैं। वह यह कि सेकुलर होना कितना मुश्‍किल है और कितना आसान।
 
 
कितना आसान है सेकुलर होना?
जहां तक सवाल आसान होने का है वह तो हम हमारे देश भारत में देख ही रहे हैं कि वे तमाम लोग खुद को सेकुलर मानते हैं जो कांग्रेस या लेफ्ट की ओर से हैं। गालिबन इसमें वे सभी लोग भी शामिल हैं जो अपने अल्पसंख्‍यक होने के कारण भी सेकुलर मान लिए गए हैं। इसके अलावा वह लोग भी सेकुलर हैं जिनकी रोजी-रोटी इसी से जुड़ी हुई है या कि जो इसी में रहकर अपने साहित्यिक, प‍त्रकारिता, सिनेमाई, राजनीतिक और व्यावसायिक हित साधने में लगे हैं। यदि मैं सही हूं तो यह उसी तरह है जैसे कि कोई व्यक्ति किसी स्वयंभूव संत, बाबा, दार्शनिक आदि से जुड़कर खुद को श्रेष्ठ, ज्ञानी और समझदार समझने की भूल कर बैठता है और इस भ्रम में ही जीता रहता है कि यही एकमात्र सही रास्ता है। भले ही वह उस रास्ते की हकीकत नहीं जानता हो।
 
कहने का मतलब यह कि आइडियोलॉजी पढ़ें, समझे बगैर भी आप खुद को सेकुलर घोषित कर सकते हो या थोड़ा बहुत पढ़-सुनकर उससे प्रभावित होकर भी यह कर सकते हो, बगैर यह जाने की धर्म क्या है या राइटविंग ने किस तरह धर्म का दोहन किया है या धर्म को गलत अर्थों में लिया है। यह इस पर भी निर्भर करता है कि आप किस समाज, धर्म, परंपरा, जाति या प्रांत से बिलोंग करते हैं। जैसे मेरे दादा या पिता सेकुलर थे इसलिए मैं भी सेकुलर हूं। यह बहुत ही आसान रास्ता है कि आप सेकुलर या लेफ्टिस्ट इसलिए हो जाएं कि आपकी परवरिश ही उसी तरह से हुई है। मसलन की जब स्कूल में थे तो यूं ही लेफ्ट की राजनीति से जुड़ गए थे बगैर उसे जाने-समझे और इसी में तरस्की करते गए और कॉलेज में आप प्रेसिडेंट चुन लिए गए या आप प्रेसिडेंट चुने गए अपने कॉमरेड के दोस्त हैं। सेकुलर होने के कई आसान रास्ते और भी हैं कि आपको यदि कोई पद मिल रहा है तो भी आप गुलाटी मार सकते हैं, क्योंकि आपको किसी भी आइडियोलॉजी से कोई सरोकार नहीं है। निश्‍चित ही वर्तमान में संपूर्ण विपक्ष सेकुलर हो चला है। तो यह थे चंद आसान रास्ते, जो भारत में प्रचलित हैं। और भी कई रास्ते हो सकते हैं जिन पर विचार किए जाने की जरूरत है।
 
कितना मुश्‍किल है सेकुलर होना?
सेकुलर एथिस्ट दो तरह के हो सकते हैं पहले वे जो किसी भी धर्म और लोकतंत्र में विश्‍वास नहीं करके पूर्णत: कम्युनिज्म को मानते हैं। उनके लिए धर्म, मत, संप्रदाय, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र व्यक्ति को गलत रास्ते पर ले जाकर साम्यवादी भावना को समाप्त कर समाज को निरंकुश बनाते हैं। सत्ता का केंद्रीयकरण होना आवश्यक है और सत्तातंत्र सहित संपूर्ण राष्‍ट्र को एक ही तरह से सोचना जरूरी है। वर्तमान में चीन और उत्तर कोरिया इसका उदाहरण है। पूर्व में हमने सोवियत संघ, क्यूबा, लाओस और वियतनाम में इसका स्वरूप और परिणाम देख चुके हैं। जर्मन और फ्रांस भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। ये पहले टाइप के लोग खुद को मानते तो हैं लिबरल या ह्यूमनिस्टिक परंतु जैसा की उपरोक्त देशों में इनका व्यवहार देखा गया उससे यह विश्‍वास करना मुश्‍किल है। हमारे भारत में पश्चिम बंगाल और केरल में इनके इतिहास को देखा जा सकता है या जहां-जहां भी माओवाद फैला है वहां पर भी इनके लिबरल और ह्यूमनिस्टिक होने को देखा जा सकता है।
 
इनमें से कुछ लोगों का मानना है कि आप साम्यवादी हुए बगैर बुद्धिमान नहीं बन सकते हैं, बुद्धिमान कहलाने लायक नहीं हो सकते या कहे कि साम्यवादी होना ही कथित बौद्धिकवर्ग में अपना पेटेंट कराने जैसा है। मतलब यह कि यदि आप खुद को साम्यवादी घोषित करते हैं तो भले ही आप बुद्धिमान ना भी हो तो बुद्धिमान मान लिए जाओगे। यहां सोचने वाली बात यह है कि क्या साम्यवाद के पहले दुनिया जाहिल गंवार थी?  
 
भारत से बाहर यह धारणा है कि सेकुलर होना अर्थात किसी मत के पक्ष में नहीं होकर लिबरल रहकर मानवता के पक्ष में होना होता है, जिसमें अभिव्यक्ति की और अपने तरह से जीने की स्वतंत्रा भी शामिल है। किसी भी मत में किसी के भी मूल अधिकार और मानवाधिकार का हनन हो रहा है तो उसके विरुद्ध आवाज उठाना जरूरी है। परंतु भारत का सेकुलर अलग तरह का है। परंतु उस पर हिन्दुत्ववादी लोग यह आरोप लगाते हैं कि वह सिर्फ एक वर्ग विशेष के ही अधिकारों की रक्षा करता आया है और बहुसंख्यकों को विभाजित करके सत्ता का सुख उठाना चाहता है। सत्ता के लिए भारत में जाति, समाज और धर्म एक सार्वभौम सत्य है। राइटविंग मानती है कि हम सर्वधर्म समभाव में विश्‍वास रखते हैं। अन्याय किसी भी वर्ग में हुआ हो उसे न्याय मिलना चाहिए। परंतु जहां-जहां राइट विंग की सरकारे हैं वहां पर हालातों का जायजा लिया जा सकता है कि इनकी बातों में कितनी सचाई है क्योंकि इन पर भी आरोप है कि एक वर्ग विशेष के विरुद्ध नफरत के भाव को फैलाने में इनका बहुत योगदान रहा है?
 
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दूसरे तरह के सेकुलर वह है जो धर्म तो छोड़ चुके हैं और नास्तिक भी बन चुके हैं परंतु वे कम्युनिज्म और धर्म को एक ही सिक्के के दो पहलू मानते हैं इसलिए वे कहते हैं कि धर्म उतना ही खतरनाक है जितना की कम्युनिज्म। ऐसे लोगों की दृष्टि में मानवता, लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोपरि है और ये पूर्णत: साइंस के पक्षधर हैं। दरअसल ये वे लोग हैं जिन्होंने साइंस पढ़ते हुए धर्म और कम्युनिज्म की बुराइयों को अच्छे से जाना है, ऐसा यह लोग मानते हैं। इन लोगों का मानता है कि दुनिया में कम्युनिस्टों का भिन्न-भिन्न देश के हिसाब से अलग-अलग एजेंडा होता है। इन पर यह आरोप है कि ओवरऑल ये सभी लोग इस्लाम के साथ खड़े हैं और इस्ला‍म इनके साथ खड़ा है जोकि विरोधाभासी है और यह सेकुलर मूल्यों से भिन्न है। खड़े ही रहना है तो किसी की जाति, धर्म या समाज देखकर मत खड़े रहें।
 
धर्म के लिए विज्ञान की चुनौती : इस दूसरे टाइप के लोगों का मानना है कि धर्म या साम्यवाद ने दुनिया को बेहतर नहीं किया बल्कि साइंस ने ही जीवन और दुनिया को बेहतर बनाया और साइंस ने ही बताया है कि यह ब्रह्मांड कब और कैसे बना है। जब से विज्ञान ने तरक्की की है उसने धर्म के लिए चुनौती पैदा कर दी है। धर्म के सारे मूल्यों को ध्वस्त कर दिया है। यही कारण है कि अब धर्म के तथाकथित ठेकेदार अपने-अपने धर्म को साइंटिफिक धर्म बताने लगे हैं और अपने धर्मग्रंथों के सूत्रों के अर्थ भी अब सांइस के अनुसार निकालने लगे हैं और कहने लगे हैं कि सांइस की ये बात तो हमारे धर्मग्रंथों में पहले से ही लिखी हुई है। चाहे बिग बैंग का सिद्धांत हो या इवोल्यूशन थ्‍योरी।
 
इसलिए ये लोग मानते हैं कि सच्चा सेकुलर वह है जो नास्तिक होने के साथ ही साम्यवादी विरोधी और विज्ञान का समर्थक भी हो। वर्ना नास्तिक तो बहुत सारे भरे पड़े है विश्‍व में। नास्तिक होना आसान नहीं है इसके लिए आपको धर्म के अफीम वाले और साम्यवाद के काले पक्ष को भी समझना जरूरी है। आपको सभी धर्मों के प्रॉफेट्स के पाखंड को भी समझना जरूरी होगा उसी तरह जिस तरह की आप कॉमरेड के पाखंड को समझ गए हैं।.. ये दूसरे टाइप के लोग भी खुद को लिबरल या ह्यूमनिस्टिक मानते हैं, परंतु किस टाइप का सेकुलर सही है यह लेखक आज तक नहीं जान पाया है।
 
अंत में हालांकि यह अभी भी माना जाता है कि धर्म या मार्क्सवादी कम्युनिज्म को दुनिया में अच्छे से अभी तक नहीं समझा गया है। मार्क्सवाद उतना बुरा नहीं है जितना उसे बना दिया गया है यही बात धर्म के बारे में भी कही जाती है, परंतु साइंसवाद के बारे में आप क्या सोचते हैं?
 

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