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RCEP समझौते में शामिल नहीं होगा भारत, घरेलू उद्योगों से जुड़े मुद्दों का नहीं हुआ समाधान

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, सोमवार, 4 नवंबर 2019 (23:42 IST)
बैंकॉक। पिछले करीब 7 साल से जारी बातचीत के बाद घरेलू उद्योगों के हित से जुड़ी मूल चिंताओं का समाधान नहीं होने पर आखिरकार भारत ने चीन के समर्थन वाले क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) समझौते से बाहर रहने का फैसला किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को आरसीईपी शिखर बैठक में अपने संबोधन में ही इस फैसले की जानकारी देते हुए कहा कि भारत आरसीईपी में शामिल नहीं होगा।
 
मोदी ने कहा कि प्रस्तावित समझौते से सभी भारतीयों के जीवन और आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। उन्होंने कहा कि भारत द्वारा उठाए गए मुद्दों और चिंताओं का संतोषजनक ढंग से समाधान नहीं होने की वजह से उसने समझौते से बाहर रहने का फैसला किया है। शिखर सम्मेलन में दुनिया के कई देशों के नेता उपस्थित थे।
 
मोदी ने कहा, ‘आरसीईपी करार का मौजूदा स्वरूप पूरी तरह इसकी मूल भावना और इसके मार्गदर्शी सिद्धान्तों को परिलक्षित नहीं करता है। इसमें भारत द्वारा उठाए गए शेष मुद्दों और चिंताओं का संतोषजनक समाधान नहीं किया जा सका है। ऐसे में भारत के लिए आरसीईपी समझौते में शामिल होना संभव नहीं है।’
 
विपक्षी दल कांग्रेस आरसीईपी को लेकर सरकार पर लगातार हमलावर था। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने सोमवार को सरकार पर यह कहते हुए कटाक्ष किया कि ‘मेक इन इंडिया’ अब ‘बाय फ्राम चाइना’ (चीन से खरीदो) हो गया है।
 
राहुल ने आरईसीपी से जुड़ी एक खबर का हवाला देते हुए यह दावा भी किया कि आरईसीपी से भारत में सस्ते सामान की बाढ़ आ जाएगी जिससे लाखों नौकरियां जाएंगी और अर्थव्यवस्था को गहरा नुकसान पहुंचेगा।
 
सूत्रों ने बताया कि चीन की ओर से शिखर बैठक के दौरान आरसीईपी समझौते को पूरा करने को लेकर काफी दबाव बनाया जा रहा था। चीन के लिए यह उसके अमेरिका के साथ चल रहे व्यापार युद्ध के प्रभाव के बीच व्यापार में संतुलन बैठाने में मददगार साबित होता। साथ ही वह पश्चिमी देशों को क्षेत्र की आर्थिक ताकत का भी अंदाजा करा पाता।
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भारत इस बातचीत में अपने उत्पादों के लिए बाजार पहुंच का मुद्दा काफी जोरशोर से उठा रहा था। भारत मुख्यतौर पर अपने घरेलू बाजार को बचाने के लिए कुछ वस्तुओं की संरक्षित सूची को लेकर भी मजबूत रुख अपनाये हुए था। देश के कई उद्योगों को ऐसी आशंका है कि भारत यदि इस समझौते पर हस्ताक्षर करता है तो घरेलू बाजार में चीन के सस्ते कृषि और औद्योगिक उत्पादों की बाढ़ आ जाएगी।
 
प्रधानमंत्री ने कहा, ‘भारत व्यापक क्षेत्रीय एकीकरण के साथ मुक्त व्यापार और नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का पक्षधर है। आरसीईपी वार्ताओं की शुरुआत के साथ ही भारत इसके साथ रचनात्मक और अर्थपूर्ण तरीके से जुड़ा रहा है। भारत ने आपसी समझबूझ के साथ ‘लो और दो’ की भावना के साथ इसमें संतुलन बैठाने के लिए कार्य किया है।’
 
मोदी ने कहा, ‘जब हम अपने चारों तरफ देखते हैं तो 7 साल की आरसीईपी वार्ताओं के दौरान वैश्विक आर्थिक और व्यापार परिदृश्य सहित कई चीजों में बदलाव आया है। हम इन बदलावों की अनदेखी नहीं कर सकते।’
 
इस बीच, व्यापार विशेषज्ञों ने कहा है कि भारत के आरसीईपी में शामिल नहीं होने के फैसले से घरेलू उद्योग को अनुचित प्रतिस्पर्धा से बचाया जा सकेगा। भारतीय विदेश व्यापार संस्थान (आईआईएफटी) में प्रोफेसर राकेश मोहन जोशी ने कहा, ‘इस कदम से स्पष्ट है कि भारत सावधानी से अपने उद्योग तथा किसानों को अनुचित प्रतिस्पर्धा से संरक्षण पर विचार कर रहा है। इससे डेयरी क्षेत्र को बड़ी राहत मिलेगी।’ 
 
निर्यातकों के संगठन फियो के पूर्व अध्यक्ष एस सी रल्हन ने भी इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि इस्पात और कुछ इंजीनियरिंग कंपनियों ने करार को लेकर अपनी आपत्ति जताई थी। रल्हन ने कहा, ‘आरसीईपी से चीन के बाजार में पहुंच को लेकर भारतीय निर्यातकों को कोई लाभ नहीं मिलता।’ 
 
आसियान नेताओं और छह अन्य देशों ने नवंबर, 2012 में कंबोडिया की राजधानी नोम पेह में 21वें आसियान शिखर सम्मेलन के दौरान आरसीईपी वार्ताओं की शुरुआत की थी। आरसीईपी वार्ताओं को शुरू करने का मकसद एक आधुनिक, व्यापक, उच्च गुणवत्ता वाला और पारस्परिक लाभकारी आर्थिक भागीदारी करार करना था। 
 
मोदी ने कहा, ‘जब मैं आरसीईपी करार को सभी भारतीयों के हितों से जोड़कर देखता हूं, तो मुझे सकारात्मक जवाब नहीं मिलता। ऐसे में न तो गांधीजी का कोई जंतर और न ही मेरी अपनी अंतरात्मा आरसीईपी में शामिल होने की अनुमति देती है।’ विदेश मंत्रालय में सचिव (पूर्व) विजय ठाकुर सिंह ने बताया कि भारत ने शिखर बैठक के दौरान आरसीईपी करार में शामिल नहीं होने के अपने फैसले की सूचना दे दी है। सिंह ने कहा, ‘हमारा यह फैसला मौजूदा वैश्विक स्थिति के आकलन के अलावा करार के निष्पक्ष और संतुलित नहीं होने के आधार पर लिया गया है। भारत के कई प्रमुख मुद्दे थे जिन्हें हल नहीं किया गया।’ 
 
सूत्रों ने कहा कि वार्ताओं में आयात में बढ़ोतरी से अपर्याप्त संरक्षण, बाजार पहुंच को लेकर भारत को विश्वसनीय आश्वासन की कमी, गैर शुल्क अड़चनों, कुछ देशों द्वारा नियमों के संभावित उल्लंघन और चीन के साथ व्यापार में मतभेद जैसे मुद्दों का समाधान नहीं निकल पाया।
 
भारत के समझौते से बाहर रहने की घोषणा के बाद 15 आरसीईपी सदस्य देशों ने बयान जारी कर मुक्त व्यापार करार पर अगले साल हस्ताक्षर करने की प्रतिबद्धता जताई। 
 
यह पूछे जाने पर कि क्या भारत बाद के चरण में आरसीईपी में शामिल हो सकता है, विदेश मंत्रालय में सचिव (पूर्व) सिंह ने कहा कि भारत ने इसमें शामिल नहीं होने का फैसला किया है।
 
आरसीईपी देशों ने बयान में कहा कि भारत के कई मुद्दे थे, जिनका समाधान नहीं हो पाया। आरसीईपी में दस आसियान देश और उनके छह मुक्त व्यापार भागीदार चीन, भारत, जापान, दक्षिण, कोरिया, भारत, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड शामिल हैं। हालांकि, भारत ने अब आरसीईपी से बाहर निकलने का फैसला किया है।
 
यदि आरसीईपी समझौते को अंतिम रूप दे दिया जाता तो यह दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार क्षेत्र बन जाता। इसमें दुनिया की करीब आधी आबादी शामिल होती और वैश्विक व्यापार का 40 प्रतिशत तथा वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का करीब 35 प्रतिशत इस क्षेत्र के दायरे में होता। सूत्रों ने कहा कि भारत को छोड़कर आरसीईपी के सभी 15 सदस्य देश सोमवार के शिखर सम्मेलन के दौरान करार को अंतिम रूप देने को लेकर एकमत थे।
 
सूत्रों ने कहा कि आरसीईपी में भारत ने जो रुख अपनाया है उससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मजबूत नेतृत्व और दुनिया में भारत का बढ़ता कद परिलक्षित होता है। भारत के इस फैसले से भारतीय किसानों, सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उपक्रमों (एमएसएमई) और डेयरी उत्पाद का हित संरक्षित होगा।
 
सूत्रों ने कहा कि यह पहला मौका नहीं है जबकि प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई में भारत ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार और उससे संबंधित वार्ताओं में कड़ा रुख अख्तियार किया है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी मोदी को मुश्किल वार्ताकार करार दे चुके हैं। हालांकि, ट्रंप को खुद भी सख्त रुख अपनाने के लिए जाना जाता है।
 
सरकारी सूत्रों ने कहा, ‘अब वे दिन हवा हुए जबकि व्यापार के मुद्दों पर वैश्विक शक्तियों के समक्ष भारतीय वार्ताकार दबाव में आ जाते थे। इस बार भारत ‘फ्रंट फुट’ पर खेला है और उसने व्यापार घाटे को लेकर देश की चिंताओं को उठाया है। साथ ही भारत ने भारतीय सेवाओं और निवेश के लिए अन्य देशों को अपने बाजारों को और खोलने का दबाव भी बनाया है।’
 
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के कार्यकाल के दौरान भारत ने 2007 में भारत-चीन एफटीए की संभावना तलाशने और 2011-12 में चीन के साथ आरसीईपी वार्ताओं में शामिल होने की सहमति दी थी। सूत्रों ने कहा कि संप्रग के दौरान लिए गए इन फैसलों की वजह से आरसीईपी के देशों के साथ भारत का व्यापार घाटा जो 2004 में 7 अरब डॉलर था वह 2014 में 78 अरब डॉलर पर पहुंच गया। उस समय हुए इन फैसलों से भारतीय घरेलू उद्योग अभी तक प्रभावित हैं।
 

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