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प्रवासी कविता : जीवनदीप इस दिवाली
रेखा भाटिया
जिंदगी की रफ़्तार को कुछ आगे बढ़ाओ,
खेलो खतरों से नया कुछ कर दिखाओ।
जो बीत गया वह था ही बीतने के लिए,
उसे भूल सारा गुबार बाहर निकाल लो।
आंसू आए तो भी संग-साथ मुस्कराओ,
चंद ठहाकों से क्या कुछ बिगड़ेगा।
बहुत कुछ कदाचित संवर ही जाएगा,
कुछ लक्ष्य साधो सपनों की दिशा में।
दिशाहीन हो जाएंगे कई लक्ष्य भी,
किस्मत की डोर में उलझ-उलझकर।
कुछ समय की करवटों में सलवटें बनेंगे,
कई मोड़ बहकोगे दोतरफा रास्तों में।
कई चौराहे अनजान होगें जीवन राहों में,
थक भी जाओगे बहुतेरे साथ छुटेंगे।
भटकोगे भी बहुत बार कर्मरथ पर सवार,
अक्सर कर्मगति के आड़े आएगी मनोवृत्ति।
बाह्य-आंतरिक देह का गणित गड़बड़ाए भी तो क्या,
सोचोगे बैठ तुम बुद्धू आज सभी कायल हैं तेरे।
बल-बुद्धि-काया-कौशल सबकुछ तो है पास,
भ्रम में है अंतर भान हो तुम्हें यहां।
समयधारा पर रेखाओं का कोई वज़ूद नहीं,
चलती सांसें ठोस प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
उत्तराकाल में प्रत्यक्ष झुर्रियां साथ होंगी ही,
बीमारी में सलाह सभी देंगे चतुराई से।
पीड़ा हरने का बाण राम के ही पास है,
जो कुछ भी पीछे छूटेगा तेरा सामान।
भोगा पुराना, पुराने सपनों के ढेर पर पड़ा,
कठपुतली ही बन बैठोगे इस जीवन पहेली में।
खेलो खतरों से भीतर जीवनदीप जलाओ,
रूह आदाज़ हो भ्रम से शुभ हो चारों ओर।
इस दिवाली कुछ अलग अंदाज़ दिखाओ,
जिंदगी की रफ़्तार को कुछ आगे बढ़ाओ!
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