ग़ज़ल : दर पे खड़ा मुलाकात को...

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- डॉ. रूपेश जैन राहत

दर पे खड़ा मुलाकात को तुम आती भी नहीं
शायद मेरी आवाज़ तुम तक जाती भी नहीं।
 
लगता है मेरे हाल पर आती है तुझे हँसी
जुनूँ में क्यूँ नींद रात भर आती भी नहीं।
 
चश्म प्यासी तुम चिलमन में छुपे बैठे हो
ये शब-ए-इंतिज़ार है कि जाती भी नहीं।
 
है तबीअत ऐसी के चीख़ के याद करता हूँ
मेरी जान जाती है तुम्हे शर्म आती भी नहीं।
 
तू ख़फ़ा है तो तेरी ख़ुशी का बहाना बता दे
तेरी उम्मीद में 'राहत' तड़प जाती भी नहीं।

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