आषाढ़ की अष्टमी पर कैसे करें शीतला माता की पूजा, जानें सही तरीका

WD Feature Desk
सोमवार, 16 जून 2025 (16:55 IST)
Ashtami of Ashadh month: प्रतिवर्ष आषाढ़ कृष्ण अष्टमी को शीतलाष्टमी के रूप में मनाया जाता है, जिसे कई क्षेत्रों में बसौरा भी कहा जाता है। इस दिन का धार्मिक, सांस्कृतिक और पारंपरिक दृष्टिकोण से विशेष महत्व है। इस वर्ष आषाढ़ मास में पड़ने वाला शीतलाष्टमी या बसौरा व्रत 19 जून, गुरुवार को मनाया जा रहा है। आइए जानें कि इस दिन शीतलाष्टमी और बसौरा मनाने की पूजा विधि के बारे में खास जानकारी...ALSO READ: कब से शुरू होगी आषाढ़ माह की गुप्त नवरात्रि, क्या है इसकी पूजा का मुहूर्त
 
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आषाढ़ कृष्ण अष्टमी को शीतला माता की पूजा भी चैत्र शीतलाष्टमी के समान ही होती है:
1. पूर्व संध्या पर तैयारी (सप्तमी की रात):
- शीतला सप्तमी की शाम को या रात में ही शीतला माता को अर्पित करने वाला सारा भोजन (बसौरा) तैयार कर लिया जाता है। इसमें मीठे चावल, पूड़ी, पुए, गुलगुले, दही, पकौड़ी, मीठी मठरी आदि शामिल होते हैं।
- घरों में चूल्हा नहीं जलाया जाता ताकि माता को शीतलता मिले।
 
2. अष्टमी के दिन (सुबह):
- सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- पूजा की दो थालियां तैयार करें: 
पहली थाली: इसमें बासी भोजन (बसौरा) रखें।
दूसरी थाली: इसमें पूजन सामग्री जैसे रोली, कुमकुम, हल्दी, चावल (अक्षत), मेहंदी, मोली, वस्त्र (धागा), सिक्के, आटे का दीपक (बिना जलाया हुआ), पवित्र जल से भरा लोटा और नीम के पत्ते रखें।
- शीतला माता के मंदिर जाएं या घर पर ही उनकी मूर्ति/चित्र स्थापित करें।
- सबसे पहले माता को जल अर्पित करें।
- फिर रोली, कुमकुम, हल्दी का टीका लगाएं। मेहंदी, मोली और वस्त्र अर्पित करें।
- आटे का दीपक बिना जलाए माता को अर्पित करें।
- बासी भोजन का भोग लगाएं।
- नीम की पत्तियों से माता की पूजा करें, क्योंकि नीम को शीतलता प्रदान करने वाला और औषधीय गुणों से युक्त माना जाता है।
- शीतला माता की व्रत कथा सुनें या पढ़ें।
- माता की आरती करें।
- पूजा के बाद बचे हुए जल को थोड़ा अपनी आंखों पर लगाएं और बाकी घर में छिड़क दें, जिससे घर में सुख-शांति बनी रहे और रोगों से बचाव हो।
- अंत में, घर के सभी सदस्य प्रसाद के रूप में बासी भोजन ही ग्रहण करते हैं।
 
इस प्रकार, आषाढ़ कृष्ण अष्टमी को शीतलाष्टमी का पर्व स्वास्थ्य, स्वच्छता और शीतलता के संदेश के साथ मनाया जाता है, और 'बसौरा' की परंपरा इसके धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व को दर्शाती है।
 
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