भारत: देश से बाहर महिलाओं के विस्थापन का कड़वा सच

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मंगलवार, 13 अगस्त 2024 (13:27 IST)
File Photo
भारत में बेहतर जीवन की तलाश में हज़ारों महिलाएं घरेलू कामगार के तौर रोज़गार पाने के लिए विदेशों की ओर प्रवास करती हैं। लेकिन उन्हें अक्सर दलालों की धोखाधड़ी में फंसकर बेहद अमानवीय हालात में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। अन्तरारष्ट्रीय श्रम संगठन ILO के ‘Work in Freedom’ कार्यक्रम के ज़रिए, प्रवासी कामगारों को अपने अधिकारों के प्रति सचेत करते हुए, विदेशो में कामकाज के लिए एक सुरक्षित तरीक़े से भेजने में मदद की जा रही है।

दूर तक दिखते ताड़ के वृक्षों के ऊपर फैले साफ़ नीले आकाश में चमकता सूरज और आगे जाकर सागर से मिलती घुमावदार सड़क – यह नज़ारा देखकर मन में बरबस ही यह सवाल उठ जाता है कि आख़िर इस स्वर्ग को छोड़कर कोई क्यों बाहर जाना चाहेंगे। लेकिन यह वास्तविकता है उन हज़ारों-लाखों महिलाओं की जो बड़ी संख्या में घरेलू कामगारों के तौर पर काम करने के लिए दूसरे शहरों या देशों की ओर प्रवासन करती हैं।

लाखों लोगों के लिए प्रवासन समृद्धि का रास्ता है। भारत से वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक संख्या में अन्तरराष्ट्रीय प्रवासी बाहर जाते हैं। इसीलिए भारत सबसे अधिक अन्तरराष्ट्रीय धनराशि पाने वाला देश भी है।

घर से दूर जाने की मजबूरी : आंध्र प्रदेश की सुवर्णा मैरी अपने बच्चों को गांव में छोड़कर अपने पति के साथ खाड़ी के देश प्रस्थान कर गईं। किसी भी अन्य महिला की ही तरह उनका भी सपना था कि उनका अपना एक घर हो, उनके बच्चे पढ़-लिख सकें। लेकिन एक खेती मज़दूर के रूप में वो मात्र 200-300 रुपए दिहाड़ी ही कमा पाती थीं।

वहीं सरोजिनी को खाड़ी देश में 25 हज़ार रूपए महीने तक की आमदनी होने की सम्भावना दिखी। यह रक़म एक खेती मज़दूर की उनकी आय से बहुत ज़्यादा तो थी ही गांव में रोज़गार मिलना भी बहुत मुश्किल होता था, और कम शिक्षित होने की वजह से आमदनी बढ़ाने की कोई उम्मीद भी नज़र नहीं आ रही थी। लेकिन प्रवास का फ़ैसला आसान नहीं था– ख़ासतौर पर बच्चों व बुज़ुर्गों की देखभाल की ज़िम्मेदारी, शिक्षा और अपने घर से दूर एक नई दुनिया में जीवनयापन से जुड़ी परेशानियां।

चपला अडम्मा की उम्र 20 वर्ष भी नहीं रही होगी, जब उनके पति की मृत्यु हो गई और बच्चे के पालन-पोषण की पूरी ज़िम्मेदारी उनपर आ गई। तब उन्हें खाड़ी में जाकर काम करने के अवसर के बारे में जानकारी मिली। इसी तरह मराईम्मा की कहानी भी उन असंख्य महिलाओं से मिलती-जुलती है, जिन्होंने अपने अत्याचारी पति से बचने और अपने बच्चों को बेहतर ज़िन्दगी देने के लिए प्रवासन करना उचित समझा।

अमानवीय व्यवहार : प्रवासन को लेकर उनका फ़ैसला भरोसे पर टिका था। इनमें से ज़्यादातर महिलाओं को घरेलू कामकाज करके अपना जीवन बदलने के बारे में, अपने रिश्तेदारों या दोस्तों से जानकारी मिली थी। लेकिन जो उन्हें नहीं बताया गया – वो था इस प्रवासन से जुड़ी उनकी व्यक्तिगत हानि।

सुवर्णा मैरी को रोज़गार वाला काम देने वाले लोग, उसे बिना आराम या पार्याप्त भोजन दिए लगातार काम करवाते थे। साथ ही उसे गालियों व शारीरिक उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता था व एक साल उनका वेतन भी रोककर रखा गया। चूंकि एक प्रवासी होने के नाते उन्हें अपने अधिकारों व बचने के तरीक़ों की जानकारी नहीं थी, तो उनका शोषण जारी रहा।

एक और प्रवासी घरेलू कामगार, स्वरूपा रानी बताती हैं, “मैं अपनी चचेरी बहन की मदद से वहां गई। मुझे अरबी भाषा की जानकारी नहीं थी और मुझे खाने के लिए समय नहीं दिया जाता था. मैडम मुझसे अकेले चार लोगों का काम करवाती थीं। अपने रिश्तेदारों के यहां भी काम करने ले जाती थीं। मैं वापस आना चाहती थी लेकिन उन्होंने कहा कि हमने तुम्हें 2 साल के लिए लिया है, तो अगर तुम्हें वापस जाना है तो जो 2 लाख रुपए हमने दिए हैं, वो वापस देने होंगे। इसलिए मुझे वहां दो साल रुकना पड़ा”

धोखाधड़ी की शिकार : इनमें से ज़्यादातर महिलाएं स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं पाईं और निम्न-आय वाले परिवारों से आती हैं, जिससे उन्हें Emigration Clearance Required (ECR) श्रेणी में रखा जाता है। इनमें से अधिकतर महिलाएं 30 वर्ष से कम आयु की हैं, जिससे उन्हें भारत सरकार के एक निर्देश के तहत, 17 देशों में जाने की अनुमति नहीं हैं, जिनमें से ज़्यादातर पश्चिमी एशिया में हैं।

ऐसे में अक्सर धनी व्यक्तियों से पेशगी धन लेने वाले धूर्त दलाल, या फिर गंतव्य देशों में ज़रूरी दस्तावेज़ बनाने के लिए रोज़गार संस्थाएं, पासपोर्ट में उम्र बढ़ाकर चालबाज़ियों से उन्हें बाहर ले जाते हैं। इनमें से अनेक महिलाओं को सैलानी वीज़ा पर ले जाकर, गंतव्य देश में उसे रोज़गार वीज़ा में बदल दिया जाता है, जिससे वो बिना दस्तावेज़ वाले श्रमिक बनकर जोखिम में पड़ जाते हैं। काम देने वाले मालिक अक्सर, “अनुबंध” के कार्यकाल के लिए उनके पासपोर्ट अपने पास रख लेते हैं, जोकि दो साल से कम नहीं होता।

महिलाएं यह सोचकर प्रवास करती हैं कि वो श्रमिकों के रूप में वहां काम करेंगी, लेकिन उन्हें काम पर रखने वाले लोगों का व्यवहार बहुत अलग होता है। चूंकि वो दलालों को बड़ी धनराशि देते हैं, तो इसे वसूलने के लिए वो श्रमिकों से बेइन्तहा काम करवाते हैं, और वो भी ऐसी कामकाजी परिस्थितियों में जो दासता, बंधुआ या जबरन मज़दूरी से कम नहीं होतीं।

चपला अडम्मा बताती हैं, “बहरीन में वो मुझे तीन महीने के लगभग 9 हज़ार रुपए देते थे और कुवैत में लगभग 20 हज़ार रुपए, जिससे मुझे रहने-खाने का अपना सारा ख़र्चा उठाना पड़ता था और रक़म बचाकर घर भी भेजनी पड़ती थी। मेरे मालिकों ने मुझे बताया कि उन्होंने मुझे काम के लिए ख़रीदा है और एजेंट को मुझे यहाँ लाने के लिए मोटी रक़म दी है। जब मैं बीमार पड़ी तो वो मुझे अस्पताल तो ले गए, लेकिन इलाज का सारा ख़र्चा मुझे उठाना पड़ा। हमारी वहां ठीक से देखभाल नहीं होती, ढंग से खाना भी नहीं दिया जाता और बहुत काम करवाया जाता है”

कुछ महिलाएं घर वापस भेजे गए धन से अपने सपने ज़रूर साकार कर सकीं और अपना भाग्य बदलने में सफल रहीं। चपला अडम्मा कहती हैं, “मैंने 10 साल काम करके जो धन बचत की उससे एक छोटी सी ज़मीन लेकर अपना घर बनवा सकी” लेकिन सभी महिलाओं की क़िस्मत उनकी तरह नहीं थी।

सुवर्णा मैरी ने बताया, “मैंने बहुत संघर्ष किया। मेरी तनख़्वाह मुझे ही उपलब्ध नहीं थी। मेरा दूसरा मालिक मेरी तनख़्वाह बैंक में जमा करवा देता था, लेकिन मेरे पति ने शराब में सारा धन उड़ा दिया और मेरे पास अपना घर बनाने या बच्चों की शिक्षा के लिए कोई धन नहीं बचा”

ILO की पहल: लेकिन यह कहानी निराशा की नहीं, बल्कि उम्मीद की है। इनमें से अनेक महिलाएं पहली पीढ़ी की प्रवासी हैं, जिन्होंने कुछ साल दूसरे देश में बिताए हैं, उनके अनुभवों से उनका दूरगामी व्यापक दृष्टिकोण बना और अब वो अन्य महिलाओं को सुरक्षित रूप से प्रवासन करने में मदद करती हैं। घर वापस लौटकर सुवर्णा मैरी आंध्र प्रदेश का घरेलू कामगार संघ (ADWU) का हिस्सा बनीं, जो अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन, ILO के ‘आज़ादी से काम करने के कार्यक्रम’ द्वारा समर्थित है।

सुवर्णा कहती हैं, “इस संघ के ज़रिए मुझे अपने अधिकारों के बारे में अहम जानकारी प्राप्त हुई” यूनियन की सदस्य के तौर पर, वो अब महिलाओं को सुरक्षित प्रवास करने के लिए जागरूकता फैलना का काम करती हैं और उन्हें दस्तावेज़ अपने परिवारों के पास रखने की अहमियत और बिना पंजीकरण वाले एजेंटों से सावधान रहने की हिदायत देती हैं। स्वरूपा रानी भी महिलाओं को कामकाजी घंटों, आय, छुट्टियों व उचित आराम तथा भोजन के बारे में उनके अधिकारों के प्रति जागृत करने में लगी हैं।

सरोजिनी बातती हैं, “ILO के ‘Work in Freedom Programme' के तहत, मैं गांव के लोगों को आधार कार्ड, राशन कार्ड, पैंशन जैसी सरकारी योजनाओं के बारे में जागरूक करने का काम करती हूं" "इसमें हम महिलाओं को सदस्यों के रूप में पंजीकृत करते हैं, जिससे अगर विदेश में उन्हें किन्ही चुनौतियों का सामना करना पड़े या वापस आने की ज़रूरत पड़े तो उन्हें समर्थन व मदद हासिल हो सके”

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