डॉ. गीता सूरी : जो गीता में लिखा, वो गीता ने कर दिखाया जानिए, संघर्ष की जीती-जागती गाथा

डॉ. छाया मंगल मिश्र
डॉ. गीता सूरी

'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन'
अपनी बेटी के लिए दुनिया-जहान से भिड़ जाने की दास्तां
 
न्यूजपेपर सामने थे, गीता की जीत की खबरों के साथ। वो अब कागजों में भी अपनी 'प्रचिती', अपनी बेटी, अपनी जिंदगी प्रचिती की 'गॉर्जियन' है। और प्रचिती राष्ट्रीय और अब अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी (बास्केटबॉल) के रूप में अपनी पहचान बना चुकी है।
 
एक बेटी, बहन, पत्नी, बहू और मां के रूप में खुद को सिद्ध करतीं गीता।
 
'नकारात्मक तथ्यों को सकारात्मक तरीके से मनुष्य के अंदर प्रवेश कराना चाहते हो तो गीता पढ़ो', ऐसा मैंने कहीं पढ़ा है। पर इस सुंदर, सादी, भोली, निश्छल मुस्कान से सजी गीता से मिलिए। यकीन भी होने लगेगा कि गीता वाकई में केवल पढ़ी-सुनी जाए, जरूरी नहीं। हमारे आसपास ऐसे व्यक्तित्व भी हैं, जो अपने नाम को सार्थक करते हैं। सो बस, इसी में लगी हैं हमारी 'डॉक्टर गीता सूरी'।
 
गीता कहती हैं-
 
'निगाहों में मंजिल थी, गिरे और गिरकर संभलते रहे।
हवाओं ने बहुत कोशिश की, मगर चिराग आंधियों में भी जलते रहे।'
 
बचपन तो बड़े नाजों से बीता। युवा अवस्था में हर सामान्य लड़की के सपने की तरह घर, परिवार, सुख, संतान की चाहत थी, जो हर लड़की की प्राकृतिक कामना और अधिकार होता है। लेकिन 'जिंदगी सामान्य गुजर जाए, यह तो बहुत असामान्य बात है ना'।
 
शादी के बंधन में गीता भी बंधी थीं। गीता कहती हैं कि 'एक सामान्य और मानक जोड़ा क्या होता है? क्या एक ऐसा युगल जो बाहर से दिखने में तो सामान्य हो, पर संबंधों में मानवीयता नाम की कोई चीज ही नहीं हो। ऐसे बहुत-से जोड़े देखे हैं, जहां महिला अधिकारों का हनन रोज-रोज हर पल होता है। दिन-प्रतिदिन वे घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं। लेकिन लोगों के सामने और तस्वीरों में वे एक बिलकुल सही एक-दूसरे के लिए बने 'दिखाई' देते हैं।' क्या कहते हैं वो MADE FOR EACH OTHER। जी हां, यह दर्द भी भोगा है गीता ने। साथ रहकर अकेलेपन का दु:ख।
 
स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई आपकी समझ, दक्षता और अनुभव के साथ आपकी आजीविका के साधन तो हो सकती है किंतु संस्कारों की व्यावहारिक शिक्षा तो हमें घर से ही मिलती है। एमकॉम, एमफिल, एमबीए, बीएड और फिर रिसर्च कर डॉक्टरेट डिग्री लेने वाली गीता, 'डॉ. गीता' होने के बाद भी अपनी पूज्य दादी मां की छात्रछाया में यही सीख पाई कि सहनशीलता औरत का गहना है, समझौता हमारी नियति। और मेरा मानना है कि 'डिग्रियां तो तालीम के खर्चों की रसीदें हैं। फ़कत इल्म तो वही है, जो इंसान के किरदार से झलकता है।
 
बस 'किरदार' जिंदा हो गया और गीता ने महसूस किया कि कटु समझौते जब जहरीले हो जाएं तो संधि तोड़ देना ही श्रेयस्कर है, खासकर जब प्रश्न खुद के जीवन-मरण और उससे भी बढ़कर स्वाभिमान का हो, क्योंकि बदलते लोग, बदलते रिश्ते और बदलता मौसम चाहे दिखाई दे या न दे, मगर महसूस जरूर ज्यादा होते हैं।
 
और उससे भी अधिक ग्लानि तो तब होती है, जब आपकी अपनी कुछ 'तथाकथित' नारीवादी महिला मित्र आपके बारे में ऐसी-ऐसी बातें करती हैं, जैसे किसी भयंकर बीमारी के बारे में बात कर रही हैं। उनकी बातें सुनकर हमें पता लगता है कि 'पितृसत्तात्मक' सोच औरतों के जेहन में कितने गहरे जड़ें जमा चुकी हैं। गीता उन पर केवल तरस खाकर हंस देतीं और सोचतीं-
 
'किसी को मेरे बारे में पता कुछ भी नहीं, 
इल्जाम हजारों हैं, और खता कुछ भी नहीं।'
 
पर जैसे कि आत्मविश्वास हमेशा शांत होता है और असुरक्षा सदैव बेचैन, तो आत्मविश्वास से लबरेज गीता का मानना है कि जब परिस्थिति बदलना मुमकिन न हो, तब मन की स्थिति बदल लीजिए, सब कुछ अपने आप ही बदल जाएगा। बचपन में सभी को गुड़ियों से बेहद लगाव होता है, पर जब यही लगाव पुत्रमोह में बदलता है तो कई बार विकट समस्या का कारण भी होता है।
 
हम आधी आबादी, सृष्टि रचयिता इसी के कारण कष्ट भोग रही हैं, क्योंकि हमने ही कभी हमारे वंश, हमारी जाति, हमारी प्रतिकृति को वो मान-सम्मान व आदर कभी नहीं दिया, जो हमारी बेटी के रूप में हमारी गोद में होती है। पर इस बहादुर गीता ने वो कर दिखाया अदम्य साहस के साथ। बचपन का गुड़ियों का प्यार खींच ले गया उसे 'नन्ना' के पास। ले आई वो उसे अपने साथ। घर, अपने घर। शुरू हुआ जीवन का नया अध्याय, जो खूबसूरत था, पर खतरनाक भी। जब दर्द और कड़वी बोली दोनों मीठी लगने लगे, तो समझ लीजिए आपको जीना आ गया।
 
कहानी तो लंबी है, पर काफी अड़ंगे आए थे उसे अपनी गुड़िया को पाने में।
 
रामचरित मानस में है कि-
 
'परहित बस जिन्ह के मन माहीं/ तिन्ह कहुं जग दुर्लभ कछु नाहीं।
 
अर्थात जिनके मन में सदैव दूसरों के हित करने की कामना व अभिलाषा रहती है या जो हमेशा दूसरों की सहायता करने में लगे रहते हैं, उनके लिए संपूर्ण जगत में कुछ भी (कोई भी गति) दुर्लभ नहीं है।
 
नि:संतान भाई-भाभी के दु:ख को अपना दु:ख मानने वालीं गीता ने उन्हें अपने सुख में शामिल किया। उस समय 'सिंगल मदर/ फादर' कानून नहीं था, सो भरोसे पर उन्हें ही गीता ने यह सौभाग्य दिया। पर अपनी संतान के आते ही उन्होंने इस दत्तक पुत्री को कभी अपना तो नहीं माना, पर पारिवारिक राजनीति की शतरंज में इन्हें मोहरा बना डाला।
 
हमारा व्यवहार कई बार हमारे ज्ञान से अधिक अच्छा साबित होता है, क्योंकि जीवन में जब विषम परिस्थितियां आती हैं, तब ज्ञान हार सकता है, पर व्यवहार से हमेशा जीत होने की संभावना रहती है। गीता समझ चुकी थीं दुनिया वो किताब है, जो पढ़ी नहीं जा सकती। लेकिन जमाना वो उस्ताद है, जो सब कुछ सिखा देता है।
 
चूंकि बेटी को लेने, पालने व मां-बाप दोनों का प्यार देने का फैसला खुद गीता का अपना था। वो जान गई थीं कि यह इतना आसान नहीं है अपने ढंग से जिंदगी जीना। अपनों को भी खटकने लगते हैं, जब हम अपने लिए जीने लगते हैं।
 
पर गीता के लिए तो-
 
'बस खुद्दारी ही मेरी दौलत, जो मेरी हस्ती में रहती है/
बाकी जिंदगी तो फ़कीरी है, जो अपनी मस्ती में रहती है।'
 
उसकी तो सारी दुनिया नन्ना थी। उसके मुंह से निकला 'मम्मा' उसकी जिंदगी का मधुर गीत। फिर शुरू हुआ जीवन का एक और अगला अध्याय। अब 3 माह की बेटी नन्ना 3 वर्ष की होने आई। स्कूल का सफर। अनंत प्रश्नों का खौफनाक जाल। पर कहते हैं न 'पवित्र मन सबसे उत्तम तीर्थ है।' जो गीता का है। फिर जैसे हवाएं मौसम का रुख बदल देती हैं, वैसे ही दुआएं मुसीबतों का। कागजों पर भाई-भाभी का नाम माता-पिता की जगह लिखा था। अपने ही बच्चों में रमे हुए उन्होंने तो कभी मुड़कर ही इन्हें नहीं देखा।
 
स्कूल की औपचारिकताएं महासंकट खड़ा कर रही थीं। एक बार फिर तूफान आया। तथाकथित मानवता का पाठ पढ़ाने वाले, इंसानियत की तहजीब सिखाने का ढिंढोरा पीटने वाले स्कूलों ने सिर्फ सिंगल पैरेंट होने के कारण प्रवेश देने से इंकार कर दिया। जन्म प्रमाण पत्र में माता-पिता का नाम चाहिए था, गीता का तो कागजों में जिक्र ही नहीं था।
 
फिर हुआ शुरू अगला अध्याय। अगर ख्यालों में गहराई हो तो किरदार में भी तेजस्विता हीरे की चमक की मानिंद होती है।
 
और...
 
'जो हो गया उसे सोचा नहीं करते, जो मिल गया उसे खोया नहीं करते/
हासिल उन्हें ही होती है सफलता, जो वक्त और हाल पर रोया नहीं करते।'
 
बस ठान ली थी गीता ने कि अपनी 'प्रचिती' को नाम सार्थक करने के लिए तैयार करेंगी। अपनी ही तरह। मेहनत, संघर्ष, व्यक्तित्व व व्यवहार की जीत हुई। शहर के प्रतिष्ठित स्कूल में प्रवेश भी मिला प्रचिती को।
 
जीवन का सफर चलता रहा। एक शानदार प्रखर वक्ता गीता की बेटी प्रचिती, जिसने गीता के हृदय से जन्म लिया, धड़कन के रूप में वह अपनी मां की ही तरह प्रतिभाशाली निकली। वो गीता की जान, वो नन्ही गुड़िया 7वीं क्लास तक आते-आते राज्यस्तरीय गोल्ड मैडल ले आई। तमाम सारे इनाम और मैडल अपनी मां के आंचल में सजाने लगी। ढेर सारी उल्लेखनीय उपलब्धियों का आकाश लाकर मां की झोली में डालने लगी। 5 बार राष्ट्रीय स्तर पर विजयी 'गीता की नन्ना' मध्यप्रदेश दल की कप्तान है।
 
अब फिर शुरू हुआ नया अध्याय, संघर्ष, फिर बिगुल बजा।
 
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व के मौके की संभावना। पासपोर्ट की अनिवार्यता। फिर से क़ानूनी औपचारिकताओं का मकड़जाल। इंदौर, भोपाल से लेकर दिल्ली के विदेश मंत्रालय तक का सफर। बार-बार निराशा हाथ लगना, मनोबल टूटना, फिर हिम्मत बटोरकर उम्मीदों का दीपक ले चल पड़ना। सत्य, प्रेम, लग्न, निष्ठा, धर्म को तो जीतना ही था। नाम जो गीता है।
 
अगले अध्याय की शुरुआत। कॉमर्स में व्यवसाय के नियम कानून पढ़ाने वाली इस प्रोफेसर ने खुद ही अध्ययन कर राह खोजी और परिवार न्यायालय की शरण ली।
 
उसने फिर सिद्ध किया कि...
 
'घायल तो यहां हर इक परिंदा है साहब,
जो फिर से उड़ सका वही जिंदा है साहब
 
माननीय न्यायलय ने गीता के हक़ में आदेश निकाला। माननीय न्यायालय, विदेश मंत्रालय के आदेश ने राहत की सांस दी और कागजी प्रतिफल मिला एक मां को। सामाजिक प्रतिष्ठा का मान, जन्मजात अधिकार अपनी बेटी के सभी दस्तावेजों पर। धर्म-अधर्म के युद्ध की मिसाल वो गीता और 'रेयर ऑफ रेयरेस्ट' केस मानते हुए गीता जैसी कई गीता मांओं के लिए मिसाल बनीं ये गीता।
 
माननीय सुषमा स्वराज ने वस्तुस्थिति का अध्ययन कर पासपोर्ट बनाने के निर्देश जारी किए। गीता के ही शिष्य एडवोकेट कृष्ण कालरा ने इस धर्मयुद्ध में सेनापति का किरदार निभाया। श्रेष्ठ शिष्य का दायित्व निभाया। गीता की दुनिया है प्रचिती। वो समेटती है ख्वाब उसी के, आरजू उसी की, गम उसी का, तमन्ना उसी की, यादें उसी की, उसी में मशरुफ है जिंदगी गीता की।
 
गीता की शख्सियत ही ऐसी है कि जैसे कहती है...
 
'तुम लिखकर लाना हर फ़िक्र, एक कोरे कागज पर/
फिर हम सिखाएंगे तुम्हें कि कैसे जहाज बनाकर उनको उड़ाया जाता है।'
 
मुझे हमेशा से ही ननिहाल की एक बात बेहद आनंदित करती है। वहां सभी लोग हमें अपनी मां के नाम से जानते-पहचानते हैं। फिर यहां तो माता-पिता दोनों ही गीता हैं। प्रचिती स्वर्णिम भाग्य के साथ दुनिया में आई है, जो गीता-सी मां पाई है।
 
कठिन डगर, संघर्ष, बेटी ही गोद क्यों लेना, क़ानूनी लड़ाई, तन-मन-धन से उतार-चढाव के दौर, अपने-परायों से प्यार, दुत्कार, वफ़ा, जफ़ा, क्या-क्या नहीं सहा इन मां-बेटी ने, पर सक्रियता, सजगता, सक्षमता, संघर्ष, समर्पण, संवेदनशीलता के साथ साहस के पायदानों से गुजरते हुए जीवन के इस पड़ाव तक तो आ पहुंची हैं।
 
ईश्वर उन्हें वो सारी खुशियां दे जिसकी वो हक़दार हैं। हम सभी की शुभ-कामनाएं हमेशा उनके साथ हैं। ऐसे ही नए-नए अध्याय का सृजन करते रहो। हां, यहां एक बात और जानना जरूरी है कि गीता ने 'नन्ना' का नाम 'प्रचिती' रखा जिसका अर्थ है- 'ईश्वर को महसूस करना।'
 
और तुम दोनों के लिए... 
 
'अभी तो चंद लफ्ज़ों में समेटा है तुम्हें/
अभी तो किताबों में तुम्हारा सफ़र बाकी है।' 
 

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