Motivational Tips : कोरोनाकाल में खुद की सोच को सकारात्मक कैसे करें, 5 टिप्स

अनिरुद्ध जोशी
कोरोनाकाल के दौरान लोगों में निराशा, हताशा और भय के साथ ही मन में नकारात्मक अर्थात निगे‍टिव सोच का जन्म भी हो चला है। ऐसे में सोच को सकारात्मक रखना जरूरी है क्योंकि सकारात्मक सोच से ही सबकुछ अच्छा होने लगता है और व्यक्ति फिर से सफलता प्राप्त कर सकता है। यदि आपकी सोच नकारात्मक है तो आप खुद को तो डुबोएंगे ही साथ ही दूसरों को भी डूबा देंगे। ऐसे में खुद की सोच को सकारात्मक अर्थात पॉजिटिव बनाए रखना जरूरी है। सोच को सकारात्मक और आशावादी बनाए रखने के कई तरीके हैं परंतु हम आपको योग के आसान और सरल तरीके बता रहे हैं। योग आपकी सोच को स्वस्थ बनाता है।

 
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1. सोचे अपनी सोच पर : सोचे अपनी सोच पर कि वह कितनी नकारात्म और कितनी सकारात्मक है, वह कितनी सही और कितनी गलत है। आप कितना अपने और दूसरों के बारे में अच्‍छा और बुरा सोचते रहते हैं। इस तरीके को योग में स्वाथ्‍याय करते हैं। अर्थात स्वयं को अध्ययन करना। जब आप खुद की सोच पर ध्यान देने लगते हैं तो आप निश्चित ही अच्छी सोच को बढ़ावा भी देने लगेगें। स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं का अध्ययन करना। अच्छे विचारों का अध्ययन करना और इस अध्ययन का अभ्यास करना। आप स्वयं के ज्ञान, कर्म और व्यवहार की समीक्षा करते हुए पढ़ें, वह सब कुछ जिससे आपके जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता हो साथ ही आपको इससे खुशी भी मिलती हो। तो बेहतर किताबों को अपना मित्र बनाएँ।
 
 
2. सकारात्मक बातें सोचना पड़ती है : नकारात्मक विचार हमारे मस्तिष्‍क में स्वत: ही आते हैं उन्हें सोचना नहीं पड़ता है, जबकि सकारात्मक बातों को सोचने के लिए जोर लगाना होता है। जब भी आपके मस्तिष्क में कोई नकारात्मक विचार आए तो आप तुरंत ही एक सकारात्मक विचार सोचे। यह प्रक्रिया लगातार दोहराते रहेंगे तो एक दिन नकारात्मक विचार आना बंद हो जाएंगे।
 
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3. शौच : शौच को अंग्रेजी में Purity कह सकते हैं। अष्टांग योग के दूसरे अंग 'नियम' के उपांगों के अंतर्गत प्रथम 'शौच' का जीवन में बहुत महत्व है। शौच अर्थात शुचिता, शुद्धता, शुद्धि, विशुद्धता, पवित्रता और निर्मलता। शौच का अर्थ शरीर और मन की बाहरी और आंतरिक पवित्रता से है। शौच का अर्थ मलिनता को बाहर निकालना भी है। शौच के दो प्रकार हैं- बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य का अर्थ बाहरी शुद्धि से है और आभ्यन्तर का अर्थ आंतरिक अर्थात मन वचन और कर्म की शुद्धि से है। जब व्यक्ति शरीर, मन, वचन और कर्म से शुद्ध रहता है तब उसे स्वास्थ्‍य और सकारात्मक ऊर्जा का लाभ मिलना शुरू हो जाता है। योग और आयुर्वेद के पंचकर्म से यह संभव हो सकता है या शुद्धता बरतने से भी यह संभव हो सकता है। जैसे बाहरी शुद्धता का अर्थ अच्छे से स्नान करना, शरीर के छिद्रों को अच्‍छे से धोना, आंतरिक शुद्धता का अर्थ पेट, मन और मस्तिष्क को साफ सुधरा रखना। हालांकि योग में शुद्धि हेतु पंचकर्म और पंचक्लेश के बारे में बताया गया है।
 
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4. विश्‍वास : आप ईश्‍वर पर विश्वास रखें या खुद पर परंतु विश्‍वास बहुत मदद करता है। यह आपकी सोच को सकारात्मक बनाता है। आपके भीतर विश्‍वास की ताकत है तो इससे आशा का जन्म होगा और आशा से ही सोच सकारात्मक होने लगेगे। इसलिए यह जरूर सोचे की जीवन में हार और जीत या उतार चढ़ाव तो लगे ही रहते हैं परंतु इससे घबराकर मैं हताश या निराश नहीं होऊंगा, बल्कि एक योद्धा की तरह आगे बढूंगा। खुद के भीतर एक फाइटर को पैदा करें।
 
 
5. प्राणायाम और धारणा : आपके श्वास-प्रश्वास की गति ही आपके विचारों को चलाती, सकारात्मक या नकारात्मक बनाती है। आप कभी गौर करना की जब आपको क्रोध आता है तो आपके श्वास की गति के चलने का ढंग बदल जाता या जब प्रेम के भाव आते हैं तब श्वास अगल तरह से चलती है। इसी से आपका रक्त संचाल भी होता है। अत: योग में कहा गया है कि श्वास-प्रश्वास के मंद व शांत होने पर, इंद्रियों के विषयों से हटने पर, मन अपने आप स्थिर होकर शरीर के अंतर्गत किसी स्थान विशेष में स्थिर हो जाता है तो ऊर्जा का बहाव भी एक ही दिशा में होता है। ऐसे चित्त की शक्ति बढ़ जाती है, फिर वह जो भी सोचता है वह घटित होने लगता है। जो लोग दृढ़ निश्चयी होते हैं, अनजाने में ही उनकी भी धारणा पुष्ट होने लगती है।

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