Dharma Sangrah

कथनी और करनी

प्रज्ञा पाठक
-प्रज्ञा पाठक
वे ईश-पूजा के उपरांत करबद्ध प्रार्थना कर रहे थे-हे प्रभु! सम्पूर्ण विश्व शांति, स्वच्छता, कर्मशीलता, पवित्रता और कल्याण-भाव से संपन्न हो। पूजा के आसन से उठते ही उनकी कड़कती आवाज़ शांत घर को 'अशांत' कर गई- शालिनी! तुमसे इतना भी नहीं होता कि मेरे कपड़े आलमारी से निकाल कर बाहर रख दो। सुबह से किचन में घुसकर ना जाने क्या करती रहती हो? जवाब में पत्नी द्वारा उनके लिए नाश्ता बनाने की बात सुनकर वे और जोर से बरस पड़े- बस-बस चुप रहो। हर बात का जवाब तुम्हारी ज़बान पर तैयार ही धरा रहता है।
 
घर से कार्यालय तक के मार्ग पर पाऊच की पीक और सिगरेट के धुएँ से 'अस्वच्छता' के बीज बोते गए। वहां जाकर बॉस पर उपहार का अस्त्र चलाकर 'कर्म' से मुक्ति पाई और दो वयस्क बच्चों के पिता होने को विस्मृत कर युवा स्टेनो से 'स्वीट सिक्सटीन' वाली बातें करते हुए अपनी 'पवित्र सोच' का खासा परिचय भी दिया। विगत तीन वर्षों से अपनी पेंशन स्वीकृत कराने हेतु प्रयासरत बुज़ुर्ग शर्मा जी को देखते ही उनसे रिश्वत की बंधी रकम लेकर उनकी फ़ाइल आगे बढ़ाने का हवाई वायदा कर 'अकल्याण' पर भी मोहर लगा दी। इस सबके बावजूद अगली प्रातः उनके मुख पर वही प्रार्थना थी, किन्तु अब ईश्वर उनके मुख और मन का अंतर समझ चुका था। इसलिए वह बाहर से ही नहीं, भीतर से भी पाषाणवत् बना रहा।

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