कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जयंती: पढ़ें उनकी 5 कविताएं

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21 फरवरी के दिन हिन्दी जगत के प्रसिद्ध साहित्यकार सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' (Suryakant Tripathi Nirala) का जन्मदिवस मनाया जाता है। निराला जी देवी सरस्वती (Devi Saraswati) के साधक और वरद पुत्र थे। उन्होंने हिन्दी में देवी सरस्वती (Poem on Devi Saraswati) पर जितनी कविताएं लिखी हैं, उतनी किसी और कवि ने नहीं। उनकी जयंती पर पढ़ें 5 खास कविताएं... 
 
1. सखि वसंत आया
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
 
सखि वसंत आया
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।
किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका
मधुप-वृन्द बन्दी-
पिक-स्वर नभ सरसाया।
लता-मकुल-हार-गन्ध भार भर
वही पवन बंद मंद मंदतर
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया।
आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे
केशव के केश कली के छूटे
स्वर्ण-शस्य-अञ्चल
पृथ्वी का लहराया।

 
2. वसन बासंती लेगी
 
रूखी री यह डाल,
वसन बासंती लेगी।
 
देख, खड़ी करती तप अपलक,
हीरक-सी-समीर-माला जप,
शैलसुता 'अपूर्ण-अशना'
पल्लव-वसना बनेगी-
वसन बासंती लेगी।
 
हार गले पहना फूलों का,
ऋतुपति सकल सुकूत कूलों का
स्नेह सरस भर देगा उर-भर,
स्मर हर को वरेगी-
वसन बासंती लेगी।
 
मधुव्रत में रत वधू मधुर फल
देगी जग को स्वाद-तोष-दल
गरलामृत शिव आशुतोष-बल
विश्व सकर नेगी-
वसन बासंती लेगी।

 
3. बांधो न नाव इस ठांव बंधु
 
बांधो न नाव इस ठांव बंधु
पूछेगा सारा गांव बंधु
यह घाट वही जिस पर हंसकर
वह नहाती थी धंसकर
आंखें रह जाती थी फंसकर
कंपते थे दोनों पांव बंधु
बांधो न नाव इस ठांव बंधु
वह हंसी बहुत कुछ कहती थी
फिर भी अपने में रहती थी
सबकी सुनती थी सहती थी
देती थी सबके दांव बंधु
बांधो न नाव इस ठांव बंधु

 
4. वह तोड़ती पत्थर
 
वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।
नहीं छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय कर्म रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार-
सामने तरुमालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप,
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप,
उठी झुलसाती हुई लू,
रुई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिंदी छा गई
प्रायः हुई दोपहर-
वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा, मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्न तार,
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से,
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहम सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
एक छन के बाद वह कांपी सुघड़
ढुलक माथे से गिरे सीकर
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
'मैं तोड़ती पत्थर।'

 
5. स्नेह निर्झर बह गया है
 
स्नेह निर्झर बह गया है
रेत ज्यों तन रह गया है
 
आम की यह डाल जो सूखी दिखी
कह रही है- 'अब यहां पिक या शिखी
नहीं आते
पंक्ति मैं वह हूं लिखी
नहीं जिसका अर्थ-'
जीवन ढह गया है।
 
दिए हैं मैंने जगत को फूल फल
किया है अपनी प्रभा से चकित चल
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल
ठाठ जीवन का वही
जो ढह गया है।
 
अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा
श्याम तृण पर बैठने को निरूपमा
बह रही है हृदय पर केवल अमा
मैं अलक्षित हूं यही।
कवि कह गया है।

 

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