लेख : सरकारी और निजीकरण में पिसती पब्लिक

अनिल शर्मा
सरकार को निजीकरण का चस्का कब और कैसे लगा? इसका इतिहास तो पता नहीं, मगर बात शुरू करते हैं मप्र में दशकों पहले चलने वाले 'लाल डिब्बों' से।
 
दरअसल, बरसों पहले मप्र की सड़कों पर राज्य परिवहन निगम की लाल रंग की बसें, जिन्हें गाड़ियां कहना ज्यादा उचित होगा, दौड़ती थीं। अपनी मस्ती में। चूंकि सरकारी थी इसलिए कंडिशन भी एवन टंडीरा थी यानी बिना बोले कहीं भी रुक जाएं। और सबसे बड़ा क्या कहा जाए कि घाटे में भी शानदार तरीके से चलती रहीं। जो भ्रष्ट अधिकारी-कर्मचारी थे, वे सरकारी 'लाल डिब्बों' से अपना घर भरते गए।
 
इधर निजी बस वाले भी मैदान में उतर गए। अपनी गाड़ी के आगे अगर लाल डिब्बा चले तो वे सवारी नहीं बिठाने दें। बरसों तक ऐसा चला तो सरकार भी हार गई और थक-हारकर पराए भरोसे हो गई यानी निजी हाथों में बागडोर सौंप दी यानी निजी बसें दौड़ने लगीं।
 
लगता है यहीं से निजीकरण का चस्का सरकार को लग गया जिसमें सरकारीकरण वालों ने भ्रष्टाचार करके बहुत साथ दिया। केवल यही विभाग ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र प्रणाली का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा जिसे भ्रष्टाचार ने पलीता लगाकर सरकारीकरण से निजीकरण की तरफ नहीं धकेला हो।
 
सरकारीकरण के घाटे से परेशान होकर निजीकरण का हाथ थामना मजबूरी बन गया और यही फायदा उठाया नेताओं, अधिकारियों व कर्मचारियों ने। इन्होंने अपने साथ ही अपने वालों की भी गरीबी दूर करा दी। जनता रो रही है। अनाप-शनाप बिजली के बिल भर रही है, महंगा इलाज करवाने पर मजबूर है, शिक्षा पाना तो गरीब के लिए आकाश के तारे तोड़ने जैसा है। अपवादस्वरूप कह सकते हैं कि सरकार और सरकारों ने गरीब जनता के लिए सरकारी स्कूल-कॉलेज, दवाखाने आदि-इत्यादि क्या यूं ही खोल रखे हैं। नहीं साब, ऐसा तो नहीं कह सकते, दबी जुबान से यह कह सकते हैं कि इनकी 'हालत' कैसी है? 
 
आखिरकार निजीकरण को बढ़ावा क्यों?
 
निजीकरण को बढ़ावा देने का कारण शायद यह है कि निजीकरण के परिणाम सकारात्मक होते हैं जबकि सरकारीकरण में यह लक्षित नहीं होता। इसके विपरीत असलियत में कहा जाए तो जैसा कि ऊपर लिखा है कि सरकारीकरण के दौर में लापरवाही, भ्रष्टाचार आदि से अपना निजी हित साधने की क्रिया आम हो जाने से निजीकरण को बढ़ावा इस मकसद से दिया जाने लगा कि निजीकरण से मन-मुताबिक धनार्जन का काम नेता, अधिकारी, कर्मचारी अपने और अपनों के लिए कर सकें। निजीकरण में कम पैसे में ज्यादा काम।
 
गुणात्मक विधि से बढ़ती आबादी ने इसमें आग में घी का काम किया। जब सरकारीकरण वाले कुछ विभाग और उपादान गले-गले तक घाटे में चले गए तो निजीकरण की तरफ मुंह ताका गया। सरकारीकरण के दौर में 'सरकारी संपत्ति आपकी अपनी है' मानकर भरपूर दोहन (दुरुपयोग) किया गया। इसके बाद की लाइनें नजरअंदाज कर दी गई कि 'सरकारी संपत्ति आपकी अपनी है, इसे संभालकर रखें'। सरकारी संपत्ति को संभाला, मगर अपने हित के लिए। फलस्वरूप निजीकरण वालों ने फायदा उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
 
प्रतिस्पर्धा से छुटकारा
 
आज के प्रतिस्पर्धा के दौर में निजी क्षेत्र ने अपना वर्चस्व कायम किया है, मगर कामगारों की फजीहत ही हुई है। निजी क्षेत्र में 'कम दाम में ज्यादा काम' का बोलबाला रहा है। सरकारी क्षेत्र ने प्रतिस्पर्धा से अपने आपको हमेशा दूर रखा। यह कहने में कोई आपत्ति नहीं कि सरकारी क्षेत्र ने निजी क्षेत्र को जिताने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। फलस्वरूप सरकारी क्षेत्र प्रतिस्पर्धा से छुटकारा पाते गए।
 
जनता पर असर
 
वैसे तो दोनों का ही असर जनता भुगत रही है, क्योंकि निजी क्षेत्र प्रतिस्पर्धा के दौर से गुजर रहा है, फलस्वरूप महंगाई से पब्लिक को जूझना पड़ रहा है यानी सबकुछ महंगा और आवक कम। निजी क्षेत्र के आका 1,000 रुपए की तनख्वाह में 10,000 का काम जब तक नहीं ले लेते, तब तक कामगार को छुट्टी नहीं मिलती। इधर सरकारी क्षेत्र की बात करें तो कोई सी फाइल आगे बढ़ाना हो या कुछ और काम, 'भेंट' लगती है। बिना 'भेंट' कुछ नहीं होता। आज भी सरकारी क्षेत्र में यह प्रथा जारी है।
 
और जनता पिसा रही है निजी और सरकारीकरण में...!

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