लेना-देना या व्यवहार, जी का जंजाल...

डॉ. छाया मंगल मिश्र
लेन-देन व्यवहार कई बार क्लेश का कारण भी बन जाता है और यह संबंधों को जोड़ने और तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाता है। इंसानी समाज में इज्जत का मामला और मान-अपमान का माध्यम भी है। कई बार खुलेआम और कई बार गोपनीयता से निभाया जाता है।
 
बहन-बेटियों के लिए तो जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में नेग, उपहार, बिदाई और भी सभी संपन्न होने वाले  शुभ-अशुभ प्रसंगों में भी पूरे आदर से यथोचित हैसियत के अनुसार हर पक्ष संतुष्ट रखने का प्रयास करता है (कुछ अपवादों को छोड़कर)। पर जब ये जबर्दस्ती छीने जाएं, लादे जाएं, थोपे जाएं तो कलह का कारण बन जाते  हैं और जहर लगने लगते हैं।
 
आशी के घर का मुहूर्त था। कम लोगों को बुलाया गया। उनमें उनकी बेटी की ननद की जेठानी भी पहुंचीं, जो  उनकी मौसेरी बहन की बेटी थीं और जेठानी नाते आईं भी। कार्यक्रम संपन्न हुआ तो वो मौसी के रिश्ते से बधावे  के लिफाफे मांगने लगीं। आशी ने कहा कि मैंने कभी किसी को नहीं दिया। जो सबको है, वो ही है। पर वो जिद  ही पकड़ के बैठ गईं।
 
डबल रिश्ता था और माहौल न बिगड़े तो पिंड छुड़ाने उसे लिफाफा पकड़ाना ही पड़ा। पर उसने कभी आशी की बेटी  को छोटी बहन के रूप में या मौसी की बेटी के रूप में कोई शगुन नहीं दिया। ये लोग ऐसे ही होते हैं। देते समय  हाथ पीछे बांध लेंगे और लेते समय क़ानून के हाथ से भी लंबे हाथ कर लेंगे।
परिधि भाभी की शादी को 30 साल से भी ऊपर होने को आए। अपनी तीनों ननदों की चाकरी करते-करते उनकी  उम्र बीतने आई। 2 बेटे हैं। अब शादी की तैयारियां शुरू कर रहीं। बेटे के लिए लड़कियां ढूंढीं। एक पसंद भी की  और सगाई की। पर इन बहनों को भाई-भाभी की ख़ुशी बिना किसी प्रपंच करे रास न आई। सर्वेसर्वा तो ये बनी- बैठी थीं अभी तक उनकी गृहस्थी की।
 
ईगो हर्ट हुआ और लड़की वालों के घर पहुंचीं, बरगलाया, आग लगाई, रिश्तों में गलतफहमियां फैला आईं और  भतीजे का रिश्ता तुड़वाकर 'पुण्य' कमा आईं। होता यह है कि बेटी देने वाला ज्यादा सोचता है, क्योंकि जब खून  के रिश्ते अपनों के दुश्मन हों तो अपनी बेटी देने में घबराता है। ये बहनें पूरी जिंदगी अपने भाई-भाभी की निजी  जिंदगी के बहीखाते का भी हिसाब रखते रहीं।
 
भैया व परिधि भाभी ने थोड़ा-सा अपने हिसाब से जीना चाहा तो ये सुलग उठीं। शायद इनके वर्चस्व में दरारें  पड़तीं नजर आई हों। असल में ये बहनें आए दिन सपरिवार यहीं पड़ी रहतीं। घूमने से लेकर सारे आनंद  भाभी-भैया के माथे करतीं। जाते समय खूब मांग-मांगकर मनपसंद के धन-धान्य, कपड़े-लत्ते और महीनों पड़े रहने  के खर्चों की बचत के साथ बिदा होतीं।
 
भाभी तो है ही फिर अल्लाह की गाय बेचारी सेविका, जी दीदी... जी दीदी...करतीं। बस और क्या चाहिए? इतने के बाद भी बेटे-से भतीजे का रिश्ता तुड़वाने में जरा भी शर्म न आई इन नालायकों को।
 
ये बहन-बेटियां कभी अपने ससुराल में आदर्श बहू क्यों नहीं बनी रहतीं, जैसे ये अपनी भाभी से अपेक्षा करती हैं। जिम्मेदारियों के समय निर्देशक बनती हैं, सेवा के समय आदेश देती हैं, काम के समय बीमार हो जाती हैं, फोन पर लगातार बोल के ऊंगली करती हैं, हमेशा ज्ञान बांटती हैं और कहां से क्या लूट-खसोट लें, इसमें ही वे अपनी  सारी ऊर्जा खर्च करती रहती हैं। चलती-फिरती लाइटर। कमियां निकालने इनकी मानसिकता की आंखें माइक्रोस्कोप  हुई-हुई जाती हैं।
 
खुशियों की दुश्मन, हंसने से घोर एलर्जी, वैम्प एक्सप्रेशन से सजी-संवरी ये मीन-मेख की मशीनें पूरे घर को झुलसाए रखती हैं। इसमें इनके पति, बच्चे या ससुराल वालों का हाथ तो होता ही है, जलकुकड़े रिश्तेदार भी पीछे  नहीं रहते हैं। उम्र निकलते समझदारी से नाता रखें, इज्जत दें, इज्जत लें, समय-समय पर सहयोग करें, जाएं-आएं  पर दखलंदाजी न करें। अपने-अपने घर-परिवार देखें, सहयोग दें, सहयोग लें, सुख-दुःख की बराबरी की हिस्सेदारी करें, भैया-भाभी को भी जीने दें, उसके अपने परिवार के अपने बच्चों के साथ सजाए सपने पूरे होने दें, उनकी निजी जिंदगी में न घुसें।
 
यदि वे मांगें तो सलाह-मशविरा दें, पर उसे इज्जत का मामला न बनाएं, क्योंकि पीहर का शुभ आपका शुभ भी तो है, वरना कई ऐसे कंस भाई व डायन भाभी भी हैं जिन्होंने अपनी बहनों का हक खाया है, संसार उजाड़ा है...। कम से कम आपके भाई ऐसे नहीं हों तो इसका ईश्वर को धन्यवाद दीजिए।

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