पटना की चुनौती का मुक़ाबला पीएम कैसे करेंगे?

श्रवण गर्ग
बुधवार, 28 जून 2023 (15:28 IST)
Narendra Modi: देश के भविष्य से जुड़े हर छोटे-बड़े मुद्दे पर एक रहस्यमय और लंबी चुप्पी साध लेने में माहिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी क्या आपातकाल की वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर पटना में हुई विपक्षी दलों की बैठक और उसके बाद उनकी ही पार्टी में पैदा हुए भूचाल पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करेंगे? देश की जनता मोदी के मुंह की तरफ़ ताक रही है।
 
कुछ ज़्यादा ही आशंकित लोगों की जमात अगर उनके द्वारा किसी 'राष्ट्र के नाम संदेश' की प्रतीक्षा भी कर रही हो तो आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए। पटना में विपक्ष के जमावड़े को देश में उनकी अनुपस्थिति के दौरान तख्तापलट की पहले चरण की कार्रवाई भी माना जा सकता है।
 
15 विपक्षी दलों की पटना बैठक देश की राजनीति में पिछले 5 दशकों के दौरान हुई सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण घटना है। यह बैठक राहुल गांधी की कन्याकुमारी से कश्मीर तक हुई 4 हज़ार किलोमीटर लंबी 'भारत जोड़ो यात्रा' और उसके तत्काल बाद उनके नेतृत्व में हुए कर्नाटक-फ़तह का सर्वदलीय अभिनंदन था। अद्भुत संयोग था कि जून 1974 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में पटना से प्रारंभ हुई जिस 'संपूर्ण क्रांति' के प्रमुख सैनिकों में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार शामिल थे, वे ही लगभग 5 दशकों के बाद की इस नई क्रांति की अगुवाई भी कर रहे थे।
 
जून 1974 में राहुल गांधी की उम्र केवल 4 साल की थी। लालू और नीतीश को कोई दिव्य दृष्टि तब प्राप्त होती तो वे जान लेते कि जिस इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाने के लिए वे सड़कों पर उतर रहे हैं, 2023 के जून में उन्हीं का पोता देश में कथित तौर पर जारी अघोषित आपातकाल और 'तानाशाही' को समाप्त करने के लिए आंदोलन का नेतृत्व करने वाला है। भारत के इतिहास को बदलने में जुटी सरकार अब उस इतिहास को नहीं बदल पाएगी, जो इस समय लिखा जा रहा है।
 
देश प्रतीक्षा कर रहा है कि अपने सभी प्रकार के विरोधियों का, वे चाहे पार्टी के भीतर हों या बाहर, स्थितप्रज्ञ भाव से शमन कर देने का वरदान प्राप्त कर चुके प्रधानमंत्री विधानसभा-लोकसभा चुनावों के ठीक पहले उपस्थित हुई इस चुनौती का मुक़ाबला किन हथियारों से करना चाहेंगे? क्या उन्हीं हथियारों से जिनके प्रति संकल्प उन्होंने दुनिया की आंखों के सामने हाल ही में अमेरिका में प्रकट किया था कि : 'भारत लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र हमारी रगों में है। हम लोकतंत्र को जीते हैं।' या उन शस्त्रों के ज़रिए करेंगे जिनका उपयोग 'राजधर्म' का पालन करने वाली सत्ताओं के लिए निषेध है?
 
वैदिक मंत्रोच्चारणों के बीच सत्ता-हस्तांतरण के प्रतीक जिस पवित्र 'राजदंड' (सेंगोल) की स्थापना प्रधानमंत्री ने अपनी कल्पना के नए संसद भवन में 'सावरकर जयंती' के दिन की थी, वह इस समय अदृश्य होकर देश की हवा में तैर रहा है और विपक्षी उसे लपक लेने को आतुर हैं। दोनों सदनों के 250 से अधिक सदस्यों ने समारोह का इसलिए बहिष्कार किया था कि नए संसद भवन का उद्घाटन देश की सर्वोच्च संवैधानिक सत्ता महामहिम राष्ट्रपति के कर-कमलों से नहीं करवाया गया। वे ही सांसद अब सरकार के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरने के लिए बेताब हैं।
 
प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व की यह विशेषता है कि जब वे ताकतवर होते हैं, उनका गर्व उनकी चाल-ढाल और वाणी से व्यक्त होने लगता है। उनके कहे की गूंज सन्नाटों को चीरती हुई चारों दिशाओं में सुनाई पड़ने लगती है। मीडिया के चारण सीने को 56 से 156 इंच का बना देते हैं। प्रधानमंत्री जब कमज़ोर होते हैं तो अपनी कमज़ोरी को प्रत्यक्ष तौर पर प्रकट नहीं होने देते, पर उस पर पूरी तरह से आवरण भी नहीं डाल पाते। (कुछ लोग पूछते हैं कि अमेरिका में उद्बोधन के दौरान तमाम तकनीकी सुविधाएं यथा टेलीप्रॉम्प्टर आदि मौजूद होने के बावजूद कुछ अंग्रेज़ी शब्दों के उच्चारण में मोदी ऐसी त्रुटियां कैसे कर बैठे जबकि ऐसा होने के कोई पूर्व उदाहरण मौजूद नहीं हैं? क्या प्रधानमंत्री का ध्यान वहां पटना भटका रहा था?)
 
दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी के लगभग 20 करोड़ सदस्यों के हित में प्रधानमंत्री को स्वीकार कर लेना चाहिए कि अपने व्यक्तित्व का जो तिलिस्म उन्होंने 2014 में खड़ा किया था, वह अब दरकने लगा है। उनका आरोपित चमत्कार अब काम नहीं कर पा रहा है। पार्टी में सैनिकों की संख्या बढ़ती जा रही है, पर सेना कमजोर हो रही है। एक के बाद एक राज्य हाथ से फिसल रहे हैं। अन्य दलों से भर्ती रुक गई है, तपे-तपाए कार्यकर्ता पार्टी से पलायन कर रहे हैं। सब जानते हैं कि प्रधानमंत्री ऐसा कुछ भी स्वीकार नहीं करेंगे।
 
सिद्ध यह हो रहा है कि जिस चीज को अनुशासन निरूपित करते हुए अभी तक भगवा वस्त्रों से ढंका जा रहा था, वह हक़ीक़त में कोई अज्ञात 'डर' था, जो अब भीतर और बाहर सभी जगह टूट रहा है। खुलासा होने में 2024 के परिणामों की प्रतीक्षा करना पड़ेगी कि क्या वह इसी 'डर' का सफल प्रयोग था, जो पिछले 2 दशकों से अधिक समय तक इतने चमत्कारिक परिणाम गुजरात और देश में देता रहा है?
 
बिहार की राजधानी से प्रकट हुई चुनौती इसलिए महत्वपूर्ण है कि ममता और अखिलेश सहित तमाम विपक्षी नेताओं ने पटना के लिए हवाई जहाज़ पर सवार होने से पहले अच्छे से समझ लिया था कि दिल्ली से टक्कर लेने के क्या परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं? इन नेताओं के दिलों से डर के समाप्त होने का मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि वे अपने राज्यों में निवास करने वाली करोड़ों की जनता की स्वीकृति साथ लेकर ही पटना पहुंचे थे।
 
जनता का दिल अब नए सिरे से जीतने के लिए प्रधानमंत्री को कोई नया ताबीज़ गढ़ना पड़ेगा, कोई नई आवाज़ ईजाद करना पड़ेगी। प्रधानमंत्री को आश्चर्यचकित होना चाहिए कि उनकी पार्टी द्वारा गढ़े गए 'पप्पू' ने यह चमत्कार कर दिखाया है। उसने जनता का दिल भी जीत लिया है और नई आवाज़ भी ईजाद कर ली है। प्रधानमंत्री को इस काम के लिए देश की पैदल यात्रा पर निकलना पड़ेगा, पर ऐसा कर पाने के लिए उनके पास समय नहीं (बचा) है।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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