आत्महत्या को रोकने के लिए संकटमोचक की भूमिका निभानी पड़ेगी

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
हम आत्महत्या को गलत मानते हैं तथा गलत मानना भी चाहिए लेकिन हम आखिर! क्यों नहीं एक मजबूत बुनियाद बना पाते जिसके न हो पाने के चलते इंसान को आत्महत्या जैसा कठोर और क्रूरतम कदम उठाना पड़ जाता है। आत्महत्या के पीछे के कारण चाहे जो भी हों लेकिन सचमुच में ऐसा निर्णय लेना व्यक्ति की हताशा, निराशा, मजबूरी की चरम सीमा के ऊपर की दयनीय परिस्थिति होती है।

सैध्दांतिक तौर पर कुछ भी कहना बड़ा आसान होता है लेकिन जीवन की प्रयोगशाला में सैध्दांतिक दावे और आदर्श नींव के बिना एक झटके में धराशायी से हो जाते हैं। समूचे संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं होगा जो जीना न चाहता हो तो क्या आत्महत्या करने वाला व्यक्ति यह नहीं चाहता रहा होगा कि वह जीवन जिए?

क्योंकि कोई भी व्यक्ति इतना जल्दी जीवन की जंग नहीं हारना चाहता है,  वह अपनी ओर से लगभग सारे दांव-पेंच लगा देता है कि वह अपनी विपरीत परिस्थितियों से विजय प्राप्त कर ले लेकिन जब उसके सारे तरीके असफल हो जाते हैं, तब जाकर वह अपनी जीवन लीला को समाप्त करने का कठोरतम कदम उठाता होगा। क्योंकि अपने जीवन से इस संसार के सारे प्राणी प्रेम करते हैं तो भला! मनुष्य क्यों नहीं करेगा?  यहां यह बात इसलिए नहीं कही जा रही कि आत्महत्या को सही ठहराया जाए बल्कि इसलिए बात पर जोर देना ज्यादा जरूरी है क्योंकि जीवन को खत्म करने जैसा कदम उठाने वाले की मानसिकता क्या होती होगी इसका आंकलन किया जा सके।

हम मानें या न मानें लेकिन यह बात स्वीकार करनी पड़ेगी कि प्रतिदिन हजारों-लाखों लोगों के बीच रहने, मिलते-जुलते रहने के बावजूद भी हम एक प्रकार से अकेले हो चुके हैं।

एक नजर हमें अपने पारिवारिक-सामाजिक ढांचे की ओर भी डालनी पड़ेगी क्योंकि कहीं न कहीं हम इस ओर लगातार चूक करते चले जा रहे हैं जिसके चलते "आत्महत्या" जैसी जीवन संहारक त्रासदी से समूचा समाज जूझ रहा है। क्योंकि इसकी गहराई में जाए बिना हम वही पुराने ढर्रे में अलापे जाने वाले स्वर को अपनी ओर से भले ही आवाज देते रहें। इससे हाय-तौबा और शोक मनाने के अलावा हमारे हाथ कुछ भी नहीं लगने वाला है।

हम यहां अपनेपन को निभाने में असफल क्यों हो जाते हैं? हमारी भूमिका वहां पास क्यों शून्य हो जाती है, जब हमारे स्नेह, आत्मीयता, संवेदना, लगाव और सहायता की आवश्यकता हमसे जुड़े हुए किसी भी व्यक्ति को सबसे ज्यादा होती है। तब क्या हमारी एक व्यक्ति, परिवार, समाज होने के नाते यह जिम्मेदारी नहीं बनती है कि हमसे जुड़े हुए जो लोग हैं। अपने रिश्ते की गरिमा क़ो बरकरार रखते हुए उनके साथ हम इस स्तर से घुले-मिले हों कि जब कभी भी उन्हें कुछ भी असहज लगे या कि उसकी परिस्थिति विपरीत हो तो वे बेहिचक खुलकर हमसे अपनी सारे बातें बतला सकें। हम इस पर मदद कितनी कर पाते हैं या कितनी नहीं कर पाते यह अलग बात होगी लेकिन संबल और साहस तो अवश्य मिलेगा। हमारे बीच में "संवाद" न होने का इतना बड़ा अंतराल बढ़ चुका है कि सचमुच में हम कार्य करने वाली एक निर्जीव मशीन के अलावा कुछ भी नहीं रह गए हैं।

औपचारिकताओं के संसार में गोते लगाते -लगाते हम अन्दर से इतने निरीह -दुर्बल हो चुके हैं कि हम वक्त के मामूली से थपेड़े को भी सह नहीं सकते हैं। यह सब संभव हुआ तो कैसे हुआ? हम इसकी तह तक जाने की कोशिश क्यों नहीं कर पाते हैं? हमने अपने जीवन काल में बेहद करीबी लोगों को आत्महत्या करते देखा या सुना होगा। माना कि अगर कोई ऐसा करीबी उदाहरण हमारे सामने न भी हुआ तो आधुनिक तकनीक के चलते हमनें कहीं न कहीं से देखा व सुना तो अवश्य ही होगा। इसे हम किसी खास नजरिए से इस प्रकार न देखें कि आत्महत्या करने वाला कितना बड़ा या छोटा आदमी है। चाहे इसकी तुलना आर्थिक तौर पर हो या सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर हो।

हमनें अगर विश्लेषण किया होगा या कि कभी जानने की कोशिश की होगी कि आत्महत्या के पीछे की वजह क्या है? तो हमने एक चीज अवश्य पाई होगी वह यह है कि उसके करीब तक अपनी पहुंच रखने वाले बेहद कम लोग ही रहे होंगे या कि वे उतने करीब नहीं रहे होंगे जिससे कि आत्महत्या करने वाला व्यक्ति अपनी पीड़ा को साझा कर सकता हो। यानि कि यह साफ है कि "संवाद" की कमी होना ही कहीं न कहीं बहुत बड़ा कारण दिखता है। यह बात अलग है कि यदि कोई व्यक्ति/संस्था या कि ऐसा कोई कारण आत्महत्या के लिए मजबूर करता है तब हम इसे आत्महत्या नहीं बल्कि "हत्या" कहेंगे। लेकिन फिर भी इस बात को जायज नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि उसके जीवन को खत्म करने की कोई चीज वजह बनें तथा यदि उसको किसी निकटस्थ व्यक्ति से बतलाया जाए। तब यह अवश्य संभव मानिए कि कोई न कोई हल या तरीका अवश्य निकल सकता है जिससे आत्महत्या को रोका जा सकता हो।

आत्महत्या करने वाले व्यक्ति के लिए सैध्दांतिक तौर पर भले ही यह कहना आसान हो कि इतनी बड़ी क्या मजबूरी थी कि जीवन की बाजी हार जाना मुनासिब समझा गया। लेकिन हमने क्या कभी यह गौर किया है कि हमारे बीच ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो कभी अवसाद, तनाव तथा मानसिक तौर पर उथल-पुथल की समस्या से जूझ रहा हो। साथ ही वह इस बात को इंगित भी करे कि मैं मानसिक तौर पर गंभीर समस्या से जूझ रहा हूं या कि मानसिक असंतुलन मुझ पर हावी है जिसकी वजह से मैं अपना काम सही ढंग से नहीं कर पा रहा हूं।

तब क्या कभी हम उस व्यक्ति की बातों को गंभीरता से सुनने और समझने का प्रयास करते हैं? नहीं हम इसे नजरअंदाज करते हुए सीधे टाल देते हैं।

क्या हम इसे ही सभ्य समाज की स्वस्थ मानसिकता कहेंगे? जहां हम इस चीज पर गौर नहीं कर पाते कि इस बात की गहराई क्या है तथा इसके तार किन -किन उलझनों और झंझावातों से जुड़े हुए हैं, तथा हमारे नजरअंदाज करने के क्या परिणाम हो सकते हैं।

जबकि हमें ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति की बातों को सुनने और समझने का प्रयास करना चाहिए, लेकिन हम ऐसा करने की बजाय उसकी बातों को उपेक्षित कर देते हैं। उस व्यक्ति के अन्दर उस समय जो पीड़ा और हताशा का लावा उबल रहा होता है यदि वह उसे प्रकट कर देता है तथा हम उसे गौर से सुनकर उसे समझने और समझाने का प्रयास करते हैं तो एक स्तर तक हम उसकी भावनाओं की कद्र करते हुए उसे स्नेह और आत्मीयता से लबरेज करने का कार्य करते हैं। हो सकता है कि हमारी इन संवेदनाओं और सहानुभूति की वजह से वह अपने अन्तर्द्वन्द्व से निपटने में सहूलियत महसूस करे।

हमें चाहिए होता है कि हम यथासंभव उस व्यक्ति की मदद करें और उसे अपने नजदीक रखकर जीवन के सुखद पहलू की ओर उसके ध्यान को खींचने का प्रयास करें। ऐसा करने पर एक स्तर तक उसके जीवन में धीरे-धीरे ही सही लेकिन खुशियों का आना तो प्रारंभ हो जाएगा क्योंकि स्नेह में इतनी सामर्थ्य है कि वह जीवन में छा रहे निराशा के काले बादलों को हटा सकता है। चूंकि इस सन्दर्भ में हमारे यहां सर्वसाधारण में मानसिक रोग एवं इसके उपचार हेतु विपरीत धारणा है इसके चलते हम मनोरोग विशेषज्ञ से उपचार लेनें में संकोच महसूस करते हैं जो कि सर्वथा अनुचित है। क्योंकि मानसिक समस्या किसी को भी हो सकती है यह भी एक सामान्य बीमारी की तरह ही है।

इसलिए हमें अपने समाज की धारणाओं की परवाह किए बगैर उस व्यक्ति को सीधे मनोरोग विशेषज्ञ के पास ले जाना चाहिए क्यों जीवन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है।

किन्तु हम बदलते दौर में औपचारिकताओं को निभाने वाली वह निर्जीव मशीन बनते जा रहे हैं जिसमें संवेदनाओं, स्नेह, लगाव का कोई स्थान नहीं होता है। शो-ऑफ करने की हमारी आदत हमें अन्दर ही अन्दर खोखला करती जा रही है। हम बाहर से भले ही हंसने-मुस्कुराने का दिखावा करते हों लेकिन सच में यह केवल दिखाने के लिए ही होता है फिर भी हम अपनी पीड़ा किसी से साझा नहीं कर पाते। आखिर हम कैसा परिवेश खुद के इर्द-गिर्द बनाते चले जा रहे हैं, जहां कहने को तो हमारे साथ हजारों लोग होते हैं लेकिन जिनसे हम अपने सारी बातें कह सकें ऐसे कोई नहीं?

हमारा कहीं दूर जाकर आशियाना बसाकर रहना, दूर होना नहीं होता है बल्कि हमारा दूर होना वह है जब हम एकदम करीब होकर भी एक -दूसरे से आन्तरिक तौर पर जुड़े नहीं होते हैं। इस अंतराल को पाटने के लिए हमने आज तक क्या प्रयत्न किए हैं?

घर-परिवार, आस-पड़ोस, दोस्त, रिश्तेदारी, ऑफिस के सहकर्मी या कि हमारे कार्यक्षेत्र में कोई न कोई ऐसा व्यक्ति जरूर होना चाहिए जिससे हम अपने जीवन की सारी उलझनें, दु:ख, विपत्ति, परेशानियों के बारे में खुलकर कह सकें। संसार में ऐसा व्यक्ति कोई नहीं होगा जिसके जीवन में समस्याएं न आई हों या कि जीवन के विभिन्न चरणों में उसका सामना अवसाद, तनाव से न हुआ हो। लेकिन समस्याओं एवं अवसाद से जीतना हमारी आन्तरिक मजबूती और परिवेश के स्नेहिल ढांचे पर निर्भर करता है।

इसलिए जीवन की बेल को कुम्हलाने से बचाए रखने के लिए यह ज्यादा जरूरी हो चुका है कि हम संवाद, आत्मीयता, स्नेह, आपसी तालमेल की मिठास को इस सीमा तक अवश्य बढ़ा लें कि जिससे अगर कभी भी हमारे साथ या हमसे जुड़े हुए व्यक्ति के साथ ऐसा कुछ भी होता हो तो हम उसे सुनने-समझने के साथ ही जीवन की महत्ता एवं असीमित संभावनाओं की यात्रा में संकटमोचक की भूमिका अदा कर सकें।

(नोट: इस लेख में व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक की न‍िजी अभिव्‍यक्‍त‍ि है। वेबदुन‍िया का इससे कोई संबंध नहीं है।

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