क्‍या है नास्तिक होने का अर्थ

आस्तिकता बनाम नास्तिकता और स्‍वामी विवेकानंद

jitendra

नास्तिक वह है, जो अपने आप में विश्‍वास नहीं करता। प्राचीन धर्म ने कहा कि वह नास्तिक है जो ईश्‍वर में विश्‍वास नहीं करता। नया धर्म कहता है कि नास्तिक वह है, जो अपने आप में विश्‍वास नहीं करता ।

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‘ब्रह्म सत्‍य जगत मिथ्‍य ा ’ भारतीय हिंदू दर्शन का मूल तत्‍व है। ठोस भौतिक जगत में व्‍याप्‍त दुखों और अनाचारों का हल न खोजकर जगत को मिथ्‍या बताते हुए दुखों और अत्‍याचारों को भी मिथ्‍या बताया जाता है। गंभीरता से सोचें तो इन व्‍याख्‍यानों का अर्थ क्‍या है। क्‍या यह दर्शन एक किस्‍म के यथास्थितिवाद और अकर्मण्‍यता की दिशा में नहीं लेकर जाता ?

लेकिन इसी देश की धरती पर ऐसे लोग भी हुए, जो इस हिंदूवादी दर्शन से इत्‍तेफाक नहीं रखते। स्‍वामी विवेकानंद, रामकृष्‍ण परमहंस और महर्षि अरविंद को ऐसे ही हिंदू दार्शनिकों की श्रेणी में रखा जा सकता है, जो मनुष्‍य जीवन के वास्‍तविक दुखों और उन दुखों का हल खोजने की चिंता से संचालित हैं।

कई सौ वर्ष पूर्व एक राजकुमार जीवन के दुखों से पीडि़त हो एक रात राजमहल का सुख छोड़कर वन की ओर चला जाता है, उन दुखों के कारण की तलाश में, उनका हल खोजने, जो उसकी आत्‍मा को उद्वेलित किए हुए थे। ऐसे ही सुदूर जेरुशलम में रोमन साम्राज्‍य के अत्‍याचारों से पीडित समाज में एक शख्‍स पैदा होता है। एक कमजोर, मामूली बढई, धूल अटे बालों और कपड़ों में पहाड़ों, जंगलों में भटकता मनुष्‍यों को प्रेम और सौहार्द का संदेश दे रहा है, उनके दुखों का कारण और समाधान बता रहा है।

स्‍वामी विवेकानंद के दर्शन पर बात करते हुए यीशु और सुकरात से लेकर भगवान बुद्ध तक का जिक्र लाजिमी हो जाता है ।
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स्‍वामी विवेकानंद भी जब हिंदुत्‍व की, दर्शन की और ईश्‍वर का बात करते हैं, तो उनका उद्देश्‍य वास्‍तविक संसार से भागने के लिए कोई आभासी ईश्‍वरीय संसार बुनना नहीं है। जगत मिथ्‍या है और ब्रह्म ही एकमात्र सत्‍य, इसलिए सबकुछ भूलकर किसी अदृश्‍य शक्ति का ध्‍यान किया जाए, इस दर्शन के मुखर विरोधी थे स्‍वामी विवेकानंद।

ऐसे आस्तिकों से उन्‍होंने नास्तिकों को बेहतर माना है। वे कहते हैं, ‘किसी के कहने मात्र से करोड़ों देवी-देवताओं की पूजा करने वालों की तुलना में नास्तिक लाख गुना अच्‍छा होता है क्‍योंकि वो किसी काम आता है ।’

आस्तिकता और नास्तिकता की विवेकानंद की परिभाषा भी बिल्‍कुल भिन्‍न थी। उन्‍होंने लिखा है, ‘नास्तिक वह ह ै, जो अपने आप में विश्‍वास नहीं करता। प्राचीन धर्म ने कहा कि वह नास्तिक ह ै, जो ईश्‍वर में विश्‍वास नहीं करता। नया धर्म कहता है कि नास्तिक वह ह ै, जो अपने आप में विश्‍वास नहीं करता । ’

समाज में गरीबी है, अत्‍याचार है, उत्‍पीड़न है, मनुष्‍य-मनुष्‍य के बीच असमानता और गैर-बराबरी की लंबी खाई है। जब तक यह सब दूर नहीं होता, किसी ईश्‍वर भक्ति का, गौरव-गाथा का कोई अर्थ नहीं है। और फिर ईश्‍वर भक्ति और क्‍या है सिवाय एक सुंदर, मुक्‍त समाज बनाने के मानवीय प्रयासों के ।

  समाज में गरीबी है, अत्‍याचार है, उत्‍पीड़न है, मनुष्‍य-मनुष्‍य के बीच असमानता और गैर-बराबरी की लंबी खाई है। जब तक यह सब दूर नहीं होता, किसी ईश्‍वर भक्ति का, गौरव-गाथा का कोई अर्थ नहीं है। और फिर ईश्‍वर भक्ति और क्‍या है सिवा एक सुंदर, मुक्‍त समाज बना      
अपने देशवासियों का आह्वान करते हुए वे कहते हैं, ‘ईश्‍वर को खोजने कहाँ जाओगे ? क्‍या वे सभी दरिद्र, पीडि़त और दुर्बल लोग ईश्‍वर नहीं हैं ? पहले उनकी पूजा क्‍यों नहीं करते। गंगा के तीर पर कुआँ खोदने क्‍यों जाते हो ? ये लोग ही तुम्‍हारे लिए ईश्‍वर बनें, उन्‍हीं का विचार करो, उन्‍हीं के लिए कार्य करो और उनके लिए सतत प्रार्थना करो - ईश्‍वर तुम्‍हें रास्‍ता दिखाएगा । ’
उन्‍होंने कहा था, ‘जब तक मेरे देश में एक कुत्‍ता भी भूखा है, तब तक मेरा सारा धर्म उसके लिए भोजन जुटाना ही होगा । ’

स्‍वामी विवेकानंद ने बहुत ओजपूर्ण शब्‍दों में मुँह में सोने का चम्‍मच लेकर पैदा हुए उन लोगों को ललकारा है, ‘जब तक लाखों लोग भूख और अज्ञान में डूबे रहकर मर रहे हैं, मैं ऐसे प्रत्‍येक व्‍यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ, जो उनके खर्च से तो शिक्षित हुआ, लेकिन उनकी ओर तनिक भी ध्‍यान नहीं देता । ’

यथास्थितिवादी और धर्म के मठ और साम्राज्‍य कायम करके व्‍यवस्‍था से अपने निजी हितों का पोषण करने वाले तथाकथित हिंदूवादियों ने विवेकानंद के विचारों को अपने पक्ष में इस्‍तेमाल करने की कोशिश की है, जैसाकि बाद ईसा मसीह के साथ भी हुआ और मुहम्‍मद सा‍हब के साथ भी। भगवान बुद्ध जिस मूर्ति-पूजा के सख्‍त विरोधी थी, बाद में उनके अनुयायी उनकी मूर्ति बनाकर उनकी पूजा करने लगे ।

विवेकानंद को ऐसे कर्मकाण्‍डों और छद्म से बचाने की जरूरत है। आवश्‍यकता उनके वास्‍तविक दर्शन और विचारों को समझने और आज बदलते युग में भी उस पर आचरण करने की है।

पिछली सदी के गहराते अँधेरों में जब स्‍वामी विवेकानंद ने ज्ञान की
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लौ जलाई थी, आज वह मद्धम पड़ती दिख रही है। अँधेरा तब से कहीं ज्‍यादा गहरा है और ज्ञान और विचारों की मशाल की जरूरत भी कहीं ज्‍यादा गहरी है। विवेकानंद के विचार और उनका मानवतावादी दर्शन अगर इन अँधेरों में ज्ञान की एक मामूली किरण भी जगा सके, तो सत्‍य और जीवन में इंसानी भरोसे को कायम रखने में कुछ तो मदद मिलेगी ही।

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