पुण्यतिथि विशेष : जानिए भारतीय कुश्ती के 'गुरू हनुमान' के बारे में

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- अथर्व पंवार
भारतीय कुश्ती के पितामह के रूप में पहचाने जाने वाले विजय पाल यादव जी की आज 23 मई को पुण्यतिथि रहती है। उन्हें 'गुरु हनुमान' के नाम से भी जाना जाता है। वह स्वयं एक अच्छे पहलवान के साथ साथ कुश्ती के अच्छे प्रशिक्षक भी थे। आइए जानते हैं उनके जीवन के बारे में -
 
प्रारंभिक जीवन -
उनका जन्म 15 मार्च 1901 को राजस्थान के झुंझुनू में हुआ। बचपन में शारीरिक रूप से कमजोर होने के कारण उनके हमउम्र बच्चे उन्हें परेशान करते थे। इसका प्रतिशोध लेने के लिए उन्होंने सेहत बनाने पर ध्यान दिया और व्यायामशाला जाने लगे। युवा अवस्था तक आते आते उनका कुश्ती के प्रति प्रेम बहुत अधिक हो गया था। उन्होंने 20 वर्ष की आयु में घर छोड़ दिया और वे दिल्ली आ गए। 
 
हर पहलवान के इष्ट प्रभु हनुमान होते हैं। उन्हें बल का देवता माना गया है। उन्हें आदर्श मानकर उन्होंने अपना नाम भी 'हनुमान' रख लिया और आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने का प्राण भी लिया। वे स्वयं कई बार कहते थे कि उनका विवाह तो कुश्ती से हो गया है अब भला वह विवाह क्यों करे।
 
उनकी कुश्ती के प्रति लग्न को देखकर दिल्ली के विख्यात उद्योगपति कृष्णकुमार बिड़ला ने उन्हें व्यायामशाला के लिए भूमि भी आवंटित करवाई थी।
 
स्वतंत्रता में योगदान -
1940 में वह स्वतंत्रता के आंदोलन में शामिल हो गए और निरंतर इससे जुड़े रहे। वर्ष 1947 में भारत विभाजन हुआ तो उन्होंने पाकिस्तान से आए शरणार्थियों की सेवा और सहायता में कोई कमी नहीं रखी। इसके बाद इनकी व्यायामशाला दिल्ली में पहलवानों का एक प्रमुख केंद्र हो गई।
 
कुश्ती में योगदान -
गुरु हनुमान के शिष्य उन्हें पिता तुल्य समझते थे। उन्होंने ही मीडिया से कुश्ती के कवरेज के लिए आग्रह किया। उस समय पहलवान आर्थिक तंगी से गुजरते थे। उनकी स्थिति सुधरने के लिए उन्होंने सिफारिशें भी की।
वह भारतीय शैली की कुश्ती में माहिर थे। उन्होंने कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के पहलवान भारत को दिए। उनके 3 शिष्यों ने राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक, 2 शिष्यों ने एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीता था। उन्हीं के 8 शिष्य अर्जुन अवार्ड खेल पुरस्कार से भी सम्मानित हो चुके हैं। उनके कई शिष्य ओलंपिक में भी हिस्सा ले चुके थे जो भविष्य में दूसरे पहलवानों के लिए आदर्श बने।
 
ब्रह्मचारी जीवन -
हनुमान गुरू ने अपना जीवन सरल रूप से जिया। वह आजीवन शाकाहारी रहे। वह ग्रामीण पद्धति से रहते थे। वह सदा धोती कुर्ते को ही प्रधान परिधान मानते थे। वह अपने शिष्यों को भी ब्रह्मचर्य और शाकाहार अपनाने की शिक्षा देते थे। जब उनसे कोई भेंट के लिए जाता था तो उसे वह चाय के स्थान पर बादाम की लस्सी पिलाते थे। उनके 90 पार होने पर भी उनकी चपलता देखते ही बनती थी , वो उस आयु में भी पहलवानों को पटकनी देने की क्षमता रखते थे। 23 मई को एक सड़क दुर्घटना में उनकी 98 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई जिससे उनका आयु का शतक लगाने का स्वप्न अधूरा रह गया।
 
पुरस्कार -
कुश्ती के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान देने के लिए उन्हें 1983 में 'पद्मश्री' और 1987 में 'द्रोणाचार्य पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। भारत के खेल 'कुश्ती' को जीवन देने वाले 'गुरु हनुमान' को शत शत नमन।

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